( पंजी. यूके 065014202100596 )
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः, नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत कर्ताये नमो नमः,
नमोऽस्तुते जगन्मात्रे कारणायै नमो नमः, प्रसीद जगतां मातः वाराह्यै ते नमो नमः ।
इष्ट देवता
इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति के मन में उस सत्ता के किसी एक स्वरूप की छवि बनी रहती है जिससे वह बहुत आत्मीय संबंध (intimate personal relation) रखता है। इसी को इष्ट देवता (personalized God) कहते हैं। वह स्वरूप जो हृदय में जाग्रत होता है और विवेक लाता है। यह ईश्वर का आन्तरिक स्वरूप है जो बाह्य स्वरूप से कही अधिक आत्मीय है जिससे व्यक्ति विशेष को संबंध स्थापित (relate) करना भी सरल हो। आदिवासियों व वनवासियों में भी इष्ट देवता बहुत स्पष्ट रूप से स्थापित होते है। ब्रह्म तो निर्गुण, निराकार, मानवीय पकड़ से परे है। ज्ञातव्य है कि ऋृषि मुनियों ने गणित व विज्ञान के ग्रंथों का प्रारंभ भी अपने इष्ट देवता के स्मरण से किया है। भक्ति मार्ग में ध्यान हेतु इष्ट देवता, अर्थात एक आराध्य स्वरूप देवता का होना आवश्यक होता है। ईष्ट देवता अन्ततः ब्रह्म की ओर ले जाता है। इष्ट की अराधना में मंत्र व यंत्र भी महत्वपूर्ण हैं। इष्ट का कारण शरीर मंत्र कहलाता है, सूक्ष्म शरीर तंत्र तथा स्थूल शरीर यंत्र कहलाता है। यंत्र के मूल में तंत्र तथा तंत्र के मूल में मंत्र है (पुरी शंकराचार्य)। जहाँ इष्ट देवता व्यक्तिपरक है वहीं कुलदेवी कुल परंपरा की अधिष्ठात्री होती है।भगवान के अनेक नामों व रूपों की अलग-अलग स्तुति करना आवश्यक नहीं हैं आप पंचदेव या उनके शास्त्र सम्मत अवतार में से किसी एक स्वरूप को अपना आराध्य मान सकते हैं। भगवान के विभिन्न नामों जैसे-श्रीशिव, श्रीविष्णु, (श्रीराम, श्रीकृष्ण), श्रीदुर्गा के अलग-अलग स्मरण का भी लाभ है कि आप उस एक परमात्मा के विविध स्वरूपों का बार-बार स्मरण कर लेते हैं। विष्णु सहस्त्रानाम में विष्णु को शंभु, शिव, ईशान, रूद्र व देवी के नामों से भी संबोधित किया गया है। अतः आप शिव, विष्णु या शक्ति को जिस रूप में भी मानते हैं, वह पर्याप्त है। अपने इष्ट के अतिरिक्त सभी रूपों को उन्ही का स्वरूप या अवतार माने। एक खिलाड़ी के लिए श्री हनुमान जी इष्ट हो सकते हैं, जो भक्ति, शक्ति व श्रद्धा के प्रतीक बजरंगबली हैं, पवन सुत हैं। हनुमान जी क्षात्र बल के प्रतीक हैं और शिवावतार हैं। या एक मार्शलआर्ट के लिखाड़ी को नरसिंह भगवान के रूप से प्रेरणा मिल सकती है और एक छात्रा के लिए सरस्वती रूप, एक योद्धा के लिए रणचंडी, एक विरक्त को आदि योगी शिव, शक्ति के उपासक के लिए दुर्गा, एक भव्य और अनेक आयामों से युक्त कर्मयोगी के लिए श्रीराम या श्रीकृष्ण का आराध्य रूप में चयन करना प्रायः स्वभावतः होता है। श्री गणेश व समस्त ऊर्जा के माध्यम के रूप में भगवान सूर्य सर्वत्र हैं ही और इन दोनों का प्रत्येक पूजा कर्म में आवाहन होता है। इष्ट देवता व्यक्ति की रुचि व रुझान के अनुसार या कुल परम्परानुसार से चयनित स्वरूप हैं। यदि आपका कोई ईष्ट नहीं तो श्रीकृष्ण की शरण में जायें उनमें सभी फलक उपलब्ध हैं।रामचरित मानस में तुलसीदास जी भगवान गणेश व देवी सरस्वती की वंदना से ग्रंथ का प्रारंभ करते हैं-वर्णानामर्थ संघानाम रसानाम छंदसामपि, मंगलानाम च कर्तारौ वंदे वाणी विनायकौ। देवी सरस्वती एक अद्भुत स्वरूप है जो समस्त ज्ञान एवं रचना की स्त्रोत है। इसी प्रकार विनय पत्रिका का प्रारंभ गाइए गणपति जगबंदन से किया और उसमें अपने इष्ट देव से श्री सीता-राम की कृपा हेतु सिद्धि मांगी-मांगत तुलसिदास करजोरे, बसहि रामसिय मानस मोरे। अर्थात अन्य स्वरूपों से यह आशीर्वाद मांगते हैं कि मेरे आराध्य इष्ट देव की कृपा मुझ पर बनी रहे। आपके इष्ट व भगवान एक ही हैं तो अतिउत्तम है। अपने आराध्य की जो मूर्ति है उसे इतना विशाल मानकर देखो कि जैसे पूरे आकाश में फैली हो-गगन सदृशं ईश्वरानुभूति एक आन्तरिक, सत चित आनन्द की अनुभूति है। एक ऐसी अनुभूति जो सांसारिक वासनाओं और प्रपंचों से परे आत्मा का परमात्मा से दिव्य मिलन कराए। आत्मा से ही आन्नद की अनुभुति होती है जो ईश्वरानुभूति ही है। आत्मा आनन्द की स्रोत है।
ईश्वर व संसार के प्रति हिन्दू दृष्टि एवं संवाद संस्कृति
सृष्टा, सृष्टि व अवतार: किसी धर्म–संप्रदाय में सृष्टिकर्ता यउंामतद्ध व उसकी सृष्टि यउंजजमतद्ध के बीच सम्बन्ध एक विशेष महत्त्व की धारणा होती है । सनातन धर्म में रचना को रचयिता का ही अंश माना है अर्थात जीव में भी परमात्मा का अंश विद्यमान है, परन्तु जीव चंूकि ईश्वर नहीं है अत: वह सर्वव्यापी नहीं है । सृष्टा अपनी सृष्टि से अलग नहीं है इसीलिए यहां अवतार की अवधारणा है न कि दूत यउमेेमदहमतद्ध की । जैसे मनुष्य का ईश्वर में मिलन संभव है वैसे ही ईश्वर भी मनुष्य रूप में अवतार लेता आया है । अवतार अर्थात सृष्टा व सृष्टि के बीच सतत् आवागमन । आचार्य रामानुज ने बताया कि अवतार के दो भेद है: मुख्य अर्थात जब स्वयं ईश्वर पृथ्वी पर प्रकट होते है तथा गौण अवतार । अनेक ग्रंथों में दश अवतारों का वर्णन आया है जिनमें दो बार भगवान मुख्य अर्थात पूर्ण ब्रह्म रूप में अवतरित हुए हैं जिनकी पूजा का विस्तृत विधान उपलब्ध है–श्रीराम व श्रीकृष्ण । ये स्वरूप ईश्वर के निर्गुण व सगुण की दूरी भी पाट देते हैं । अवतार का उद्देश्य इस छन्द में निहित है: संदेश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया । इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया । (साकेत) । ज्ञातव्य है कि सभी अवतार कर्म को प्राथमिकता देते हैं और समय की काई को हटाते हैं । भागवत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण दशम स्कन्द में श्रीकृष्ण की अनन्त लीलाओं का वर्णन है । सूरदास जी ने इसी स्कंद पर सूरसागर नामक गं्रथ लिखा है । श्री कृष्ण को वासुदेव कहा है, अर्थात उनमें अन्य सभी अवतार समाहित हैं । के–एम– मुंसी ने कृष्णावतार नामक पुस्तक श्रंृखला में श्री कृष्ण लीलाओं का संकलन किया है । अवतार ईश्वर के दयालु व न्यायकारी होने का प्रमाण हैं । अन्तिम और दशवां कल्कि अवतार 4 लाख 32 हजार वर्ष में आएगा जिसके 5012 वर्ष बीत चुके हैं । गीत गोबिन्द के दशावतार स्त्रोत्र में अवतारों को श्रीकृष्ण के विविध पक्षों यंेचमबजेद्ध के रूप में दर्शाया है । दशावतार श्री विष्णु के अवतार हैं । भागवत में अवतार (स्कन्ध 6) तथा सृष्टि (10–8–2) का प्रयोजन भी बताया गया है तथा 24 अवतारों का वर्णन है जिसकी व्याख्या गुरू गोविन्द सिंह रचित दशम गं्रथ में हुई है । सतयुग व द्वापर के संध्याकाल में श्रीराम अवतरित हुए तथा द्वापर व कलियुग के संध्याकाल में श्रीकृष्ण का अवतार हुआ । कलियुग के पश्चात सतयुग से पहले कल्कि अवतार आएगा ।
श्री राम एक अदभुत मानवता भरा अवतार श्रीराम को धर्म का मूर्तरूप अर्थात धर्मस्वरूप माना गया है–रामो विग्रहवान धर्म: । तुलसी कहते हैं कि जिसे सीता राम प्रिय नहीं उसे करोड़ बैरियों के समान मानकर छोड़ देना चाहिए चाहे वह कितना ही परम मित्र क्यों न हो– जाके प्रिय न राम बैदेही । तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जदपि परम सनेही । बाल्मीकि रामायण के आरम्भ में बोला जाने वाला श्लोक कहता है–वेद–वेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे । वेद: प्राचेतसादासीत्साक्षात् रामायणात्मना । अर्थात वेद–वेद्य, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म का ही राघवेन्द्र श्री रामचन्द्र स्वरूप में अवतरण हुआ अर्थात श्रीराम ब्रह्म हैं । श्रीराम ब्रह्माण्ड नायक हैं और वे हर्ष, धैर्य व अभय अर्थात निर्भय होने का अनुभव हैं । श्रीराम का धनुष सज्जनों की सुरक्षा का वचन है तथा यह शक्ति एवं अभय का सूचक है । श्रीराम जिस पापी का भी वध किया वह मोक्ष पा गया । पत्थर बनी अहित्या व भीलनी का उद्धार किया । ब्रह्मांड नायक रामजी सुशील व गुणों के सागर हैं । वे युद्ध से पहले स्तुति करते हैं । श्रीकृष्ण तो जगमोहक हैं और उनमें भगवान के सर्वाधिक फलक व रस्मियों व्यक्त हुई हैं । बालकृष्ण की बाल लीलायें भी अद्भुत हैं जिन्हें सूरदास जी ने अमर कर दिया है, जिसमें रूप सौन्दर्भ, वात्सल्य, प्रेम, विरह, करुणा का वर्णन है । शिव मानव इतिहास में पूजे गए प्राचीनतम स्वरूप रहे हैं । भारत में स्थित सर्वाधिक मंदिर भी शिव को ही समर्पित हैं , यद्यपि वे भिन्न–भिन्न नाम से जाने जाते हैं । इन स्वरूपों की भक्ति निर्गुण व सगुण दोनों मार्र्गों से होती आई है । श्री राम को एक महानायक के रूप में प्रस्तुत करने वाली वाल्मीकि रामायण एक ऐतिहासिक धरोहर भी है । इसमें वर्णित घटनाएं आज विज्ञान के माध्यम से सत्य सिद्ध हो रही हैं । वे कुछ उपनिवेशी इतिहास लेखक ही थे जिन्होंने यह भ्रम उत्पन्न किया कि रामायण एक मिथक है (जेम्स मिल्स व चार्ल्स ग्रांट द्वारा तैयार 1808 का आलेख) जबकि 1030 में अलबरूनी ने श्री राम को ऐतिहासिक महापुरुष बताया है । यह बड़ा रोचक तथ्य है कि 1550 के आस–पास बेगम हमीदा बानू (हुमायूं की पत्नी तथा अकबर की मां) ने रामायण की चित्रकारी करवाई और बाद में अकबर ने भी रामायण का अनुवाद करवाया । यह कार्य रामायण को ऐतिहासिक ग्रंथ मानकर किया गया था । रामायण में श्री राम से जुड़े जो भी स्थल बताए गए हैं उन्हें आज पहचाना जा चुका है । श्री राम का जन्म श्री राम नवमी को बताया है और रामायण का एक श्लोक उस समय के पंचांग का पूर्ण वर्णन करता है । इस घटिकाल को आज के सॉफ्टवेयर में डालें तो श्री राम का जन्म समय 10 जनवरी, 5114(बीसी) आता है । रामायण में भरत की जन्म तिथि तथा दशरथ द्वारा राज्य छोड़ने का समय भी उसी सॉफ्टवेयर से देखों तो ये काल हू–ब–हू मिलते हैं ।
वस्तुत: राम का कथानक भारत में ही नहीं अपितु पूर्व व पश्चिम एशिया में भी सर्वत्र व्याप्त है । भगवान राम ने भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं अपितु संपूर्ण एशिया की सोच व मर्यादाओं को दिशा दी । कोरिया, थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया आदि देशों के राजा स्वयं को श्रीराम का वंशज मानते हैं । प्राच्यविद् डायकोनौफ ने लिखा है कि प्राचीन ईरान में लोगों के नाम के साथ राम शब्द जुड़ा होता था । इसी प्रकार राम जी तब रामसे बन गया, आदि । इस्लाम पूर्व के ईरान में राम एक पवित्र नाम था (टी–सी– यंग) । यह जोरस्ट्रियन कैलेंडर में एक महत्वपूर्ण नाम है । एक कर्डिस जनजाति का नाम राम बजरंग है । प. मध्य एशिया व यूरोप में राम नाम के अनेक नगर है । रामेल्ला, रामादान, रामागम, राम पेरोज आदि । वस्तुत: यह कपोल कल्पना या संयोग नहीं गहन शोध का विषय है जिसमें चैंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे । रोम का स्थापना दिवस राम नवमी को पड़ता है और उस दिन वहॉं कोई बलि नहीं दी जाती है और वह सूर्य से संबंधित है । रामेल्ला का तात्पर्य वही है जो रामपुर का है । मोसोपोटामिया पर सबसे लंबे समय तक राज्य करने वाले शासक का नाम राम था । सुमेरु सभ्यता में भरत, राम, सिन (चंद्र), रिम (राम) जैसे शब्द आते हैं । जातक की कहानियों और सुमेरु सभ्यता में आए अनेक राजाओं के नाम एक से हैं । यहां प्रश्न केवल नाम का नहीं अपितु नाम के पीछे जो संदर्भ आए हैं वे भी अयोध्या के राम की ओर इंगित करते हैं । वहां सरयूं को हरयूं कहा । राम का नाम द–पू– में तो इस तरह व्याप्त है कि यह आश्चर्य उत्पन्न करता है । चंद्रगुप्त मौर्य (285 बीसी) तथा ललितादित्य का राज्य खाड़ी देशों तक था और दक्षिण भारत के चोल आदि राजाओं का प्रभाव द–पूर्वी देशों तक था । अंकोरवाट आदि मंदिर रामायण से ओत–प्रोत हैं । हिंदू सभ्यता के 32000 (बीसी) तक के साक्ष्य मिलते हैं यद्यपि यह बहुत प्राचीन है । द्वारिका, अयोध्या हड़प्पा, मोहनजोदड़ो आदि सब इसी के अंग हैं । वस्तुत क्रिश्चियनिटी व इस्लाम की स्थापना से पूर्व सनातन धर्म विश्वव्यापी था । लेकिन अन्य सभ्यताओं के आक्रमण से सनातन संस्कृति रसातल में चले गई । वैटीकन सिटी का आकार शिवलिंगम् जैसा होना, जो संभवत: केवल संयोग मात्र न हो । लेकिन औपनिवेशिक मानसिकता से प्रभावित बासम व रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों ने राम को एक ‘जनजातीय’ नेता कहकर आंखों में पट्टी बांध दी । नील नदी के किनारे भी गंगा नदी की तरह धर्म के चिह्न विकसित हुए । मिश्र में सूर्यवंशी रामसेज का वर्णन आता है जो राम से ही निकला है । इनकी गाथाओं में आता है कि उनकी सभ्यता ‘समुद्र के पार पूर्व के देश’ से निकली । दुर्भाग्य से ओल्ड टेस्टामेंट व भारतीय ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन अभी नहीं के बराबर हुआ है, तथापि वहां पाया जाता है कि अनेक संदर्भ कहीं न कहीं भारत से जुड़े हैं । वस्तुत: श्री राम का नाम विश्वव्यापी रहा है । भारत में अयोध्या स्थित राजा धनदेव का संस्कृत अभिलेख 150 बी–सी– का है जो इस बात का साक्षी है कि अयोध्या नगर का भी गोरवपूर्ण इतिहास रहा है । अयोध्या जाकर सरयू में दीप जलाने की परंपरा बहुत प्राचीन है ।
कबीर व नानक ने श्रीराम को निर्गुण व निराकार रूप में देखा अर्थात उनके राम अयोध्या के राजकुमार दशरथ के पुत्र से भिन्न हैं, उनके राम अकाल, अजन्मा, अनाम और निराकार हैं । श्रीराम का स्वरूप कितना लोकप्रिय है इसका आँकलन इस तथ्य से कर सकते हैं कि सदियों से अधिकतम हिन्दुओं के नाम के साथ ‘राम’ शब्द जोड़ने की परम्परा रही है । लोग एक–दूसरे का अभिवादन ‘राम–राम’ कहकर करते हैं । यहां तक कि मृत्योपरान्त अन्तिम यात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ के उच्चारण की पुनरावृत्ति होती है । तुलसी ने श्रीराम को निर्धनों का रखवाला कहा है–तुलसी सोई जानिए, राम गरीब नवाज । यहां मान्यता यह भी है कि जो व्यक्ति मृत्यु के समय अन्तिम शब्द के रूप में ‘राम’ नाम पुकारता है वह मोक्ष प्राप्त करता है । गांधी जी के अन्तिम शब्द ‘हे राम!’ थे । श्रीराम हिंदुओं के महानायक भी हैं । यहां तक कि इकबाल ने भी श्रीराम को रूहानी नजर वाले इमामे हिन्द कहा और बताया ज्ञानी लोग जानते हैं कि वे नेकी का रास्ता दिखाते हैं–राम के वजूद पर हिन्दोसतां को नाज है । अहले नजर समझते हैं उनको इमामे हिन्द । रामायण में आता है–लोके नहि स विद्येत यो न राममनुव्रत: । अर्थात संसार में कोई ऐसा मानव नहीं है जो श्रीराम का भक्त न हो, क्योंकि वे आनन्द स्वरूप हैं । भारत में रामकथा लोकप्रिय रही है जिसमें पं. राधेश्याम शर्मा व यशवन्त सिंह वर्मा द्वारा संकलित ग्रंथ बहुत ही लोकप्रिय हैं । श्री राम के बारे में सागर निजामी लिखते हैं कि हिन्दियों के दिल में बाकी है मौहब्बत राम की । मिट नहीं सकती कयामत तक हुकूमत राम की ।
श्रीराम की मानव लीला में सभी गुण अनुकरणीय हैं श्री सीता व राम वैश्विक सभ्यता के प्रवर्तक, प्रेरक और शिल्पी है: 1– उन्होंने कभी भी झूठ नहीं बोला और वे एक बात को एक ही बार बोलते हैं । 2– उन्होंने अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में कभी सोचा तक नहीं–जेहिं सपनेहूं परनारि न हेरी । वे नारी सम्मान के प्रतीक हैं । उन्होंने एक विवाह की प्रथा प्रारंभ की । 3– वे सभी प्राणियों के प्रति प्रेम रखते हैं । उनमें दीन, दुर्बल, वंचितों के प्रति अद्भुत करुणा है, वे सदाशय हैं । श्री राम अनुग्रह, कृतज्ञता एवं कृपाभाव से ओत–प्रोत हैं । 4– उन्होंने कभी भी अपशब्द नहीं बोले, 5– कभी जुआ नहीं खेला, 6– कभी भी अपने द्वारा दिये हुए को याद नहीं किया, 7– कभी भी स्वयं को तुच्छ नहीं माना, 8– वे सदैव प्रशन्न मुद्रा में संवाद प्रारंभ स्वयं करते हैं, वे सभी का सम्मान करते हैं । 9– उन्होंने व्यक्ति की बुराई नहीं, अपितु अच्छाई पर बातें की, 10– सदैव सामाजिक मर्यादा को प्रश्रय दिया, 11– वे स्वल्पाहारी एवं संयमी हैं, 12– वे सदैव ओजश्वी, गौरवशाली, रमणीय, धैर्यवान, शोर्यवान व कर्मयोगी हैं, 13– शरणांगत की किसी भी कीमत पर रक्षा करते हैं । 14– उन्होंने कभी भी अधर्मियों का साथ नहीं लिया । ऋषि शरभंग की सिद्धियों को लेने से उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया कि यह महात्मा के तपोबल से कमाई सम्पत्ति को छीनना जैसा है । वे केवल अपने कर्म व पुरूषार्थ का फल चाहते हैं, दान, भिक्षा व उपकार नहीं । 15– श्री राम कहते हैं कि‘ मुझे मृत्यु का भय नहीं रहता अपितु अपनी मर्यादा व कीर्ति (यश) दूषित होने का भय रहता है– न भीतो मरणादस्मि केवलं दूषितो यश: । 16– श्री राम की लोकप्रियता जगत व्याप्त है लेकिन उन्होंने कभी भी किसी जादू या चमत्कार का सहारा नहीं लिया । 17– श्री राम समन्वयकारी एव न्यायकारी हैं । वे समता व लोकतंत्र के प्रतीक हैं अत: नाम रामायण में वाल्मीकि ने उन्हें सकलस्वीय समानत राम कहा है । इसी प्रकार श्रीराम महान इक्ष्वाकु वंश के राजकुमार होकर भी वंचित, निर्धन, स्त्री आदि के संरक्षक बने और उन्होंने त्यागपूर्वक सामान्य जीवन की एक मिशाल रखी जो बड़ी शिक्षा देती है । 18– श्री राम आदर्श राज्य के जनक हैं और जो भी मर्यादा व करूणा आज के भारतीय समाज में हमें मिलती है उसका प्रमुख श्रोत श्री राम ही हैं । श्री राम हिंदुओं के महानायक भी है । 19– श्री राम में अद्भुत संयोजन है वह भी भूमिकाओं में द्वन्द्व के बिना । वे संत भी हैं और क्षत्रिय धर्म के प्रतीक भी, वे राजा भी हैं और त्याागी भीय वे गृहस्त भी हैं और सन्यासी भी । अत: वे संत, शासन, सैनिक, गृहस्त आदि सभी के प्रेरणाश्रोत हैं । अत: विश्व के कल्याण हेतु, श्रीराम का कथानक विश्व भर में प्रसारित हो । रामं राम महाबाहौ अर्थात हमारे हृदय में रहने वाले महाबली, यही क्षात्र धर्म है अर्थात अपनी व समाज की रक्षा का समार्थ्य । 20– श्री राम ने यह दर्शाया कि नियम, प्रेम, त्याग, धर्म व मर्यादा के आधार पर संयुक्त परिवार कैसे सुख सम्पत्ति का स्त्रोत बनता है । 21– एक आदर्श जीवन कैसे जिया जाए इसे आचरण से उन्होंने दर्शया ।
गीत गोबिन्द की अष्टपदी में प्रत्येक अवतार का जयगान हुआ है, जो अद्भुत है । प्रथम पद का प्रारंभ ‘प्रलय पयोधि जले’ से होता है और प्रत्येक पद का समापन जय जगदीश हरे से होता है । इस प्रकार ईश्वर स्वयं सृष्टा व सृष्टि दोनों ही है इसीलिए कहा है–साधो! यह जग राम बगीचा । अर्थात ईश्वर सर्वत्र है । सर्वेश्वर का यह दर्शन ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में आया है–हरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिरन्नं प्रजापति: । हरि: सर्वशरीरस्थो भोक्ते भुज्यते हरी:॥ अर्थात हरि ही दाता है, हरि ही भोक्ता है, हरि ही अन्न है और हरि ही प्रजापति (सृजनहार) है । हरि सर्व शरीर में विद्यमान है और भोजन तथा भोज्य दोनों ही हरि है ।
कोई पूछे कि सभी अवतार भारत में ही क्यों अवतरित हुए ? दूसरे महाद्वीपों में क्यों नही ? वस्तुत: प्राचीन शास्त्रों में भारत शब्द प्राय: पूरी पृथ्वी के लिए प्रयुक्त हुआ है । पृथ्वी का विविध देशों में विभाजन मानव निर्मित है । हां भारत की भूमि ने इस ज्ञान को पकड़ा और पल्लवित किया । भगवान शिव को यूरोप व अफ्रिका में भी देखा जा सकता है । आज श्री कृष्ण के अनेक भक्त विभिन्न देशों में है और वृन्दावन अमेरिका में भी स्थापित हुआ है । वे विश्वानाथ हैं, जगन्नाथ हैं , जन्माता हैं । प्राचीन शिवालय व शक्तिपीठ विश्व के अनेक क्षेत्रों में स्थित हैं लेकिन हमें अभी इसका ज्ञान नहीं है । भारत को विश्व का हृदय कहा है और अवतार हृदय में ही अवतरित होते हैं । इसी प्रकार भारत धर्म कर्म मोक्ष की भूमि है अत: अवतार यही उत्पन्न हुए । (गीता प्रैस का अवतार कथांक पढें) ।
किसी हिन्दू का अपने ईश्वर के प्रति सम्बन्ध एक स्नेही, करुणामयी पिता या ममतामयी माता और उसकी सन्तान का है, एक नित्य सहारा देते अनन्य मित्र का है और सहोदर का है । भगवान कृपा निधान हैं भगवान कहते हैं कि–ये यथामाम प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम । अर्थात जो जिस भाव व मात्रा में भगवान की भक्ति करता है वे भी उसी रूप में उसका भजन करते हैं । भगवान हमको और हम भगावान को देख रहे हैं । अर्थात यह संबंध एकपक्षीय नहीं है । हिन्दू धर्म में भगवान से भय होने का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि यह सम्बन्ध मालिक, लार्ड व प्रजा या सेवक येमतअंदजद्ध का नहीं है । यहां भगवत भय यळवक मिंतपदहद्ध जैसा कोई शब्द नहीं है अपितु धर्म भीरू और कर्म भीरू आता है । हिन्दू धर्म में ईश्वर को खुश करने हेतु कुछ नहीं किया जाता । मनुष्य का जीवन–मरण, सुख–दु:ख सृष्टि के नियम व व्यक्ति के कर्मों का परिणाम हैं न कि ईश्वर निर्णय । यह एक ऐसी दृष्टि है जो व्यक्ति को दी गई स्वतंत्रता के अस्तित्व को स्वीकारती है ।
सनातन धर्म का एक अनुपम लक्षण यह है कि इसमें मनुष्य को प्रश्न पूछने, शास्त्रार्थ व संवाद का अधिकार है और जिसे ज्ञान के प्रसार का मूल भी माना है–वादे वादे जायते तत्व बोध । ज्ञानियों से ही नहीं अपितु भगवान व देवताओं तक से सामान्य व्यक्तियों द्वारा प्रश्न पूछे गए हैं । यहां कोई भी ऐसा ग्रंथ नहीं है जो प्रश्नोत्तरी रूप में न हो । गीता में स्वयं भगवान से एक सामान्य मानव अर्जुन प्रश्न करता है । अर्जुन यहां तक कहता है कि हे कृष्ण यदि आप भगवान हैं तो इसके प्रमाण दो । इन प्रश्नोत्तरियों में अलौकिक ज्ञान निहित है । योग वाशिष्ट में श्रीराम के प्रश्नों का उत्तर ऋषि वशिष्ठ दे रहे हैं । कठोपनिषद् में नचिकेता के प्रश्नों का उत्तर यमराज दे रहे हैं । अष्ठावक्र गीता, जो अध्यात्मिक ज्ञान–विज्ञान का बेजोड़ गं्रथ है, में ऋषि अष्टावक्र व राजा जनक के बीच संवाद है । वेद व उपनिषद भी प्रश्नोत्तर शैली में हैं । इसी प्रकार लक्ष्मण व रावण संवाद, अंगद–रावण संवाद, शिव–पार्वती संवाद, काक भुशुंडी–गरुड संवाद, याजवल्क्य–गार्गी आदि । यक्ष प्रश्न यसपमि जीतमंजदपदह ुनमेजपवदेद्ध तो अद्भुत हैं । इसी प्रकार युधिष्टर–भीम संवाद, धृतराष्ट्र–विदुर संवाद, गरुड–श्री विष्णु संवाद, शंकराचार्य–मंडन मिश्र संवाद यजिसमें मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती नामक महिला अध्यक्ष व निर्णायक थी, आदि अनेक संवाद अलौकिक हैं । बौद्ध व जैन ग्रंथ भी प्रश्नोत्तरी रूप में है । जहॉ भगवान बुद्ध एवं महाबीर स्वामी के वचन निराकरण के रूप में मिलते हैं । यह मंथनों की संस्कृति है जहां देव व असुर संग्राम में भी मंथन होता है । दूसरी अति महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि मनुष्य जन्म से पवित्र है अर्थात वह जन्म से पापी नहीं है यीनउंद इमपदह पे दवज ेपददमते इल इपतजीद्ध । तुलसी कृत विनय पत्रिका में व्यक्ति अपने मन से संवाद कर रहा है जिसमें जीवात्मा गुरु तथा मन शिष्य की भूमिका में है ।
उपनिषद् कहते हैं कि ईश्वर उन सभी में है जो गतिमान हैं, वह उन सभी में है जो विशुद्ध हैं, स्वच्छ हैं, वह पूजा में है, वह घर के अतिथि में, शरीर की आत्मा में है, वह मनुष्य, जल, पशु, सत्य में है, वह ब्रह्माण्डीय सन्तुलन में है, लय में है, सर्वत्र है (कठोपनिषद् 2–182) ।
कुछ जीवनोपयोगी संस्कृत लघु सूक्त
1. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। (जहां नारियों का सम्मान होता है वहां देवता निवास करते हैं)।
2. गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते। (सर्वत्र ही गुणों का सम्मान होता है)।
3. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः। (आलस्य मानव शरीर का सबसे बड़ा शत्रु है)।
4. शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्। (शरीर को स्वस्थ रखो क्यों कि यही धर्म व कर्म का साधन है)।
5. उद्योगिनं पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मीः। ( उद्योगी व्यक्ति के पास ऐश्वर्य आता है, भाग्यवादी के पास नहीं)।
6. सत्यमेव जयते नानृतम्। (सदा सत्य की ही जीत होती है, झूट की नहीं)।
7. बुभूक्षितः किं न करोति पापम्। (भूखा व्यक्ति कौन सा पाप नहीं करता)।
8. विद्या विहीनः पशुः (विद्याहीन व्यक्ति पशु तुल्य है)।
9. शठे शाठ्यं समाचरेत् (दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना उचित है)।
10. अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः। (जीवन में समय कम है और उसमें भी विघ्न बहुत से हैं )।
10. उत्पद्यन्ते विलीयन्ते दरिद्राणां मनोरथाः। (मूर्ख लोगों की इच्छाएं उत्पन्न होती रहती हैं और नष्ट होती रहती है )।
11. उत्सवप्रियाः खलु मनुष्याः। (मनुष्य उत्सव प्रिय होते हैं )।
13. किमिव हि दुष्करमकरुणानाम्। (जिनको दया नहीं आती, उनके लिये कुछ भी करना कठिन नहीं है)।
14. क्षमया किं न सिद्ध्यति। (क्षमा करने से क्या सिद्ध नहीं होता?)।
15. जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गात् अपि गरीयसी। (मां और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं)।
16. गतं न शोच्यम्। (जो बीत गया उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए)।
17. पुराणमिति न साधुसर्वम्। (आवश्यक नहीं है कि हर पुरानी चीज या सिद्धान्त अच्छा ही हो)।
18. संघे शक्तिः कलियुगे। (कलियुग में संघ में ही शक्ति होती है)।
19. सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते। (सभी गुण धन का आश्रय लेते हैं)।
20. परोपकाराय सतां विभूतयः। (सज्जनों के सभी कार्य परोपकार के लिये ही होते हैं)।
21. सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम्। (सन्तोष ही मनुष्य का श्रेष्ठ धन है)।
22. अतिपरिचयादवज्ञा। (अधिक परिचय से अवज्ञा होने लगती है)।
23. अतिलोभो विनाशाय। (अधिक लालच विनाश की ओर ले जाता है)।
24. अतितृष्णा न कर्तव्या। अति सर्वत्र वर्जयेत् (अति करने से सर्वत्र बचना चाहिए)।
25. विनाश काले विपरीत बुद्धि (विनाश के समय बुद्धि विपरीत हो जाती है)।
26. साहित्य संगीत कलाविहीना। साक्षात पशुः पुच्छ विषाण हीनः। (साहित्य, संगीत व कला से हीन व्यक्ति बिना पूछ व सींग वाला साक्षात पशु है)।
27. ईश्वरेच्छा बलीयसी। (ईश्वर की इच्छा बलवान होती है)।
28. कण्टकेनैव कण्टकमुद्धरेत्। (कांटे से कांटा निकालना चाहिये)।
29. काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्। (बुद्धिमान लोगों का खाली समय शब्द, रस, संगीत व कला में बीतता है, मूर्खों का कलह में)।
30.कालाय तस्मै नमः। (समय को नमस्कार है)।
31. गतानुगतिको लोकः न कश्चित् पारमार्छथकः। (संसार में एक दूसरे का अनुकरण होता है, कोई परम अर्थ की खोज में नहीं लगना चाहता)।
32. गहना कर्मणो गतिः( कर्म की गति गहन है)।
33 जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः। (बूंद-बूंद से घडा भर जाता है)।
34. जीवो जीवस्य जीवनम्। (जीव ही दूसरे-जीव का जीवन है)।
35. दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्। (पहले तो भारत में जन्म लेना दुर्लभ है; उससे भी दुर्लभ वहां मनुष्य रूप में जन्म लेना है)।
36. तातस्य कुपो अयामिति ब्रबूणाः, क्षारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति। (यह अपने पिताजी का कुंआ है, ऐसा बोलने वाले कायर खारा जल पीते हैं)।
37. नष्टे मूले न फलं न पुष्पम्। (मूल के नष्ट हो जाने पर न फल बचता है न पुष्प)।
38. कालेन समौषधम् (समय के साथ घाव भर जाते हैं)।
39. बुद्धिःर्यस्य बलं तस्य (बुद्धि जहां वहीं बल है)।
40. अधिकस्याधिकं फलम् (अधिक का फल भी अधिक होता है)।
41. अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः। (अर्थ ही इस संसार में मनुष्य का बन्धु है)।
क्या करें क्या न करें
पुरोहित सनातन धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा रखें। धर्माचरण करें। यम-नियम का पालन करते हुए एक अनुशासित जीवन जिएं। यजमानों के लिए एक आदर्श बनें तथा मर्यादित रहें। नित्य ब्रह्म मुहूर्त में जागकर स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर विहार , योग-प्राणायाम करें। इसके उपरान्त संध्या एवं गायत्री जप करें जो पुरोहित के लिए अनिवार्य है। पुरोहित के लिए शिखा, तिलक, यज्ञोपवीत भी अनिवार्य है। मंत्रोच्चार के समय मुख स्वच्छ हो, कुछ खा न रहे हों। उनमें कोई व्यसन न हो तथा मद्यपान वर्जित है। शाकाहारी भोजन करें। शास्त्र बताते हैं कि उपरोक्त गुणों से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण बन जाता है। सत्संग व स्वाध्याय भी पुरोहित के जीवन का अंग हैं। वे ऊँच-नींच का भेदभाव किये बिना सभी के घर पूजा कर्म करने को तत्पर रहें।
कर्मकांड वैदिक संस्कृति की देन है। कर्मकांड भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नयन का मार्ग है। वेदों के तीन मुख्य विषय हैं: कर्मकांड, ज्ञानकांड और भक्तिकांड, । जीवन के विभिन्न चरणों को कैसे जिया जाए यही कर्मकांड बताता है। यह जीने की कला है। जिससे कि लोक और परलोक सुधर जाए। इसमें उपासना, यज्ञ सामाजिक जीवन, सांस्कृतिक जीवन आचरण आदि सभी कुछ आता है ।
पुरोहित सामाजिक उत्थान के सर्वाधिक सशक्त माध्यम हैं । वे जिन परिवारों में पूजा पाठ हेतु जाएं, उन्हें नशा मुक्त करने का प्रयत्न करें। सनातन धर्म के प्रतीकों, मठ–मंदिर का संरक्षण करें और वैदिक सतमार्ग का अनुसरण करें। संत व पुरोहितों का सम्मान हो ऐसा संदेश दें। सभी संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करें। कोई कन्वर्जन नहीं करेगा ऐसा सुनिश्चित करें। सभी धर्म का आचरण करेंगे। बच्चों के चरित्र निर्माण में विशेष ध्यान दें। जन जन में हिंदू धर्म की जागृति लाएं। सभी पारिवारिक मूल्यों का निर्वाह करेंगे। महिलाओं का सम्मान करें। हिंदू जन आपस में एक दूसरे की सहायता करें। वंचितों को मुख्य धारा में जोड़ें। पुरोहित जन यजमानों को गीता, रामायण, पुराण , महाभारत आदि के आख्यान सुनाएं, तथा नीति वचन सुनाएं।
पुरोहित को चाहिए कि जिस दिन यजमान के घर में कोई कर्म है उससे पहले दिन से ही शुद्धि रखें। सात्विक भोजन करें तथा कर्म के दिन यथासंभव फलाहार करें। किन्तु लंबे समय तक भूखे न रहें । पुरोहित कर्म के समय श्वेत, पीत या गुलाबी वस्त्र ही पहनें, भगवा नहीं। पुरोहित चमड़े के सामान का उपयोग न करें। कर्म करते समय, धोती, सिर पर श्वेत टोपी या पगड़ी पहनें तथा अंगवस्त्र धारण करें।
कर्म व संस्कार अत्यन्त गूढ़ दर्शन पर आधारित हैं। ये वेद शास्त्र और ऋषि-मुनियों की देन है अतः इन्हें गंभीरता से लें।
पुरोहितों में यजमान के कल्याण की भावना बनी रहे। यजमान से उचित सम्मान प्राप्त न होने पर भी आशीर्वाद देने में कोई कृपणता न हो । यजमान को वेद शास्त्रों के ज्ञान से परिचित कराते रहें तथा उन्हें सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करें। पुरोहित अपने यजमान की आर्थिक स्थिति को देखते हुए पूजा सामग्री की सूची बनाएं । निर्धन यजमान के लिए सीमित सामग्री से भी काम चलाना पड़ सकता है ।
ज्ञातव्य है कि सनातन धर्म ऋषि मुनियों की परंपरा का निर्वाह करता है, पुरोहित सतत अपना ज्ञान वर्धन करें। संस्कृत सीखें तथा वैदिक पंडितों, संतों, महापुरुषों आदि से संपर्क जोड़ें तथा शास्त्रों का पाठन व श्रवण करें। शुद्ध मंत्रोच्चारण सीखें । विधि विधान का ज्ञान प्राप्त करें । शास्त्र यह भी बताते हैं की हमें देश, काल व परिस्थिति अनुसार चलना है । शास्त्र में आपद धर्म का प्रावधान भी है ।
हिन्दू पुरोहित संघ से जुड़ा कोई भी पुरोहित व पुजारी कर्म करने के लिए धनराशि, फीस आदि नहीं मांगेगा । वे पूर्णतः पारंपरिक स्वैच्छिक दान दक्षिणा की मर्यादा का वहन करेंगे। ज्ञातव्य है कि शास्त्रों में दैवीय कर्मों हेतु धन वसूलना पाप माना गया है किन्तु दान-दक्षिणा लेने का पुरोहित अधिकार रखते हैं। पुरोहितों को संध्या व गायत्री मंत्र जप करना चाहिए जिससे दान-दक्षिणा लेने के कारण उसके पुण्य कर्मों का क्षय नहीं होता ।
महिलाओं के प्रति अपार सम्मान हो। उन्हें मातृ व पुत्रीवत देखें - मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत । किसी को भी नारी का अपमान, उनके प्रति अपशब्द, पुरुष प्रधान मानसिकता वाली भाषा का प्रयोग न करने दें । महिला सदैव पूजनीय है। कोई भी कर्म पत्नी के बिना अधूरा है। गृहस्थ हेतु दाम्पत्य एक दूसरे के पूरक हैं। कर्म करते समय बच्चों को अग्रिम पंक्ति में बैठाएं तथा साधु-संत-संन्यासी, महापुरुषों व वृद्धजनों हेतु सम्मान पूर्वक बैठने की व्यवस्था हो, उन्हें माल्यार्पण , शाल या पुष्प आदि प्रदान हो तथा भोजन हेतु सर्वप्रथम उन्हें स्थान मिले। तत्पश्चात बच्चों व महिलाओं और अन्त में अन्य सभी को। रुग्ण व दिव्यांग जनों को सर्वाधिक महत्व मिले। बच्चों को कर्म का महत्व समझाएं, उनकी जिज्ञासा का समाधान करें ।
यह सुनिश्चित हो कि कर्म में कोई विघ्न-बाधा, अग्नि कांड आदि दुर्घटना न हो। सभी को चेताएं। सुविधाओं का भी निरीक्षण करें ।
शास्त्रों का वचन है की हम जनता में भय नहीं अपितु विवेक व संस्कार जगाएं । उनमें परमार्थ, पुरुषार्थ भाव तथा अनुशासन उत्पन्न करें । उनमें अपने शरीर व स्वास्थ्य की देख-रेख तथा समाज के प्रति संवेदना उत्पन्न करें। समाज के वयस्क, वृद्ध, असहाय, निर्धन, अकेले पन से जूझ रहे लोगों एवं पशु-पक्षियों आदि जीवों के प्रति संवेदना उत्पन्न करें तथा सेवा, शुश्रुवा हेतु प्रेरित करें। हिन्दू धर्म को दहेज के कैंसर से बचाना है । युवाओं को ऊॅच- नीच तथा कुरीतियों के विरूद्ध उद्वेलित करें तथा उनमें समता का भाव जगायें। उनमें करुणा, पुरुषार्थ की चेतना, सदाचार, निष्कपटता, राष्ट्र भक्ति, अंदर-बाहर संयम, नियमबद्धता, मंदिर व सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा, स्वास्थ्य, योग, क्रीड़ा, शास्त्र ज्ञान, स्वच्छता, शालीन व्यवहार, माता-पिता, परिवार व समाज के प्रति उत्तरदायित्व का संस्कार लाए। आज सारा विश्व पर्यावरण व जल संकट, गरीबी व सामाजिक विषमता तथा आतंकवाद से पीड़ित है। इनसे उबरने में पुरोहित सहायक बनें। जनता को गुटखा, तम्बाकू, नशे के बढ़ते प्रकोप से बचाएं। गुरु युवाओं को सन्मार्ग में लाना अपना लक्ष्य बनाएं क्योंकि वे मार्ग ढूंढ़ रहे होते हैं और उनमें भटक जाने की संभावना सर्वाधिक होती हैं। प्रजा में वैज्ञानिक सोच उत्पन्न करें, सनातन धर्म वैज्ञानिकता पर बल देता है. । उनमें महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना उत्पन्न करें। उन्हें अर्जुन, कर्ण, अश्वत्थामा, विक्रमादित्य, ललितादित्य, चाणक्य, द्रोणाचार्य, अशोक, शिवाजी, गुरु गोबिन्द सिंह, रानी लक्ष्मी बाई, दुर्गावती अहिल्यावाई, चनम्मा, बप्पा रावल, कृष्णदेव राय, महाराणा प्रताप, महाराणा रणजीतसिंह व पेशवा बाजीराव आदि वीरों की गाथाएं सुनाएं और उनमें क्षात्र धर्म विकसित करें। आम जनता को संत या ब्राह्मण के लक्षणों से न लादें, उत्कर्ष पुरोहितों के नेतृत्व से क्षात्र व गृहस्थ द्वारा ही प्रारंभ होता है। नागरिकों को, स्वयं अपनी तथा दूसरों को निर्धनता से निकलकर ऐश्वर्य प्राप्ति का मार्ग दिखाएं। वैदिक ज्ञान का संचार करें, वाहक बनें। धर्म ध्वज लहराएं। कन्वर्सन के विचार का प्रतिकार करें। सनातन धर्म प्रचार करें , यही सुमार्ग है। लोगों का सच से सामना करायें, उन्हें कल्पनाओं के संसार में न भटकायें। कर्मकांड व् संस्कार में देश- काल का विचार करें।
श्री राम एक अदभुत मानवता भरा अवतार श्रीराम को धर्म का मूर्तरूप अर्थात धर्मस्वरूप माना गया है–रामो विग्रहवान धर्म: । तुलसी कहते हैं कि जिसे सीता राम प्रिय नहीं उसे करोड़ बैरियों के समान मानकर छोड़ देना चाहिए चाहे वह कितना ही परम मित्र क्यों न हो– जाके प्रिय न राम बैदेही । तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जदपि परम सनेही । बाल्मीकि रामायण के आरम्भ में बोला जाने वाला श्लोक कहता है–वेद–वेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे । वेद: प्राचेतसादासीत्साक्षात् रामायणात्मना । अर्थात वेद–वेद्य, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म का ही राघवेन्द्र श्री रामचन्द्र स्वरूप में अवतरण हुआ अर्थात श्रीराम ब्रह्म हैं । श्रीराम ब्रह्माण्ड नायक हैं और वे हर्ष, धैर्य व अभय अर्थात निर्भय होने का अनुभव हैं । श्रीराम का धनुष सज्जनों की सुरक्षा का वचन है तथा यह शक्ति एवं अभय का सूचक है । श्रीराम जिस पापी का भी वध किया वह मोक्ष पा गया । पत्थर बनी अहित्या व भीलनी का उद्धार किया । ब्रह्मांड नायक रामजी सुशील व गुणों के सागर हैं । वे युद्ध से पहले स्तुति करते हैं । श्रीकृष्ण तो जगमोहक हैं और उनमें भगवान के सर्वाधिक फलक व रस्मियों व्यक्त हुई हैं । बालकृष्ण की बाल लीलायें भी अद्भुत हैं जिन्हें सूरदास जी ने अमर कर दिया है, जिसमें रूप सौन्दर्भ, वात्सल्य, प्रेम, विरह, करुणा का वर्णन है । शिव मानव इतिहास में पूजे गए प्राचीनतम स्वरूप रहे हैं । भारत में स्थित सर्वाधिक मंदिर भी शिव को ही समर्पित हैं , यद्यपि वे भिन्न–भिन्न नाम से जाने जाते हैं । इन स्वरूपों की भक्ति निर्गुण व सगुण दोनों मार्र्गों से होती आई है । श्री राम को एक महानायक के रूप में प्रस्तुत करने वाली वाल्मीकि रामायण एक ऐतिहासिक धरोहर भी है । इसमें वर्णित घटनाएं आज विज्ञान के माध्यम से सत्य सिद्ध हो रही हैं । वे कुछ उपनिवेशी इतिहास लेखक ही थे जिन्होंने यह भ्रम उत्पन्न किया कि रामायण एक मिथक है (जेम्स मिल्स व चार्ल्स ग्रांट द्वारा तैयार 1808 का आलेख) जबकि 1030 में अलबरूनी ने श्री राम को ऐतिहासिक महापुरुष बताया है । यह बड़ा रोचक तथ्य है कि 1550 के आस–पास बेगम हमीदा बानू (हुमायूं की पत्नी तथा अकबर की मां) ने रामायण की चित्रकारी करवाई और बाद में अकबर ने भी रामायण का अनुवाद करवाया । यह कार्य रामायण को ऐतिहासिक ग्रंथ मानकर किया गया था । रामायण में श्री राम से जुड़े जो भी स्थल बताए गए हैं उन्हें आज पहचाना जा चुका है । श्री राम का जन्म श्री राम नवमी को बताया है और रामायण का एक श्लोक उस समय के पंचांग का पूर्ण वर्णन करता है । इस घटिकाल को आज के सॉफ्टवेयर में डालें तो श्री राम का जन्म समय 10 जनवरी, 5114(बीसी) आता है । रामायण में भरत की जन्म तिथि तथा दशरथ द्वारा राज्य छोड़ने का समय भी उसी सॉफ्टवेयर से देखों तो ये काल हू–ब–हू मिलते हैं ।
वस्तुत: राम का कथानक भारत में ही नहीं अपितु पूर्व व पश्चिम एशिया में भी सर्वत्र व्याप्त है । भगवान राम ने भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं अपितु संपूर्ण एशिया की सोच व मर्यादाओं को दिशा दी । कोरिया, थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया आदि देशों के राजा स्वयं को श्रीराम का वंशज मानते हैं । प्राच्यविद् डायकोनौफ ने लिखा है कि प्राचीन ईरान में लोगों के नाम के साथ राम शब्द जुड़ा होता था । इसी प्रकार राम जी तब रामसे बन गया, आदि । इस्लाम पूर्व के ईरान में राम एक पवित्र नाम था (टी–सी– यंग) । यह जोरस्ट्रियन कैलेंडर में एक महत्वपूर्ण नाम है । एक कर्डिस जनजाति का नाम राम बजरंग है । प. मध्य एशिया व यूरोप में राम नाम के अनेक नगर है । रामेल्ला, रामादान, रामागम, राम पेरोज आदि । वस्तुत: यह कपोल कल्पना या संयोग नहीं गहन शोध का विषय है जिसमें चैंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे । रोम का स्थापना दिवस राम नवमी को पड़ता है और उस दिन वहॉं कोई बलि नहीं दी जाती है और वह सूर्य से संबंधित है । रामेल्ला का तात्पर्य वही है जो रामपुर का है । मोसोपोटामिया पर सबसे लंबे समय तक राज्य करने वाले शासक का नाम राम था । सुमेरु सभ्यता में भरत, राम, सिन (चंद्र), रिम (राम) जैसे शब्द आते हैं । जातक की कहानियों और सुमेरु सभ्यता में आए अनेक राजाओं के नाम एक से हैं । यहां प्रश्न केवल नाम का नहीं अपितु नाम के पीछे जो संदर्भ आए हैं वे भी अयोध्या के राम की ओर इंगित करते हैं । वहां सरयूं को हरयूं कहा । राम का नाम द–पू– में तो इस तरह व्याप्त है कि यह आश्चर्य उत्पन्न करता है । चंद्रगुप्त मौर्य (285 बीसी) तथा ललितादित्य का राज्य खाड़ी देशों तक था और दक्षिण भारत के चोल आदि राजाओं का प्रभाव द–पूर्वी देशों तक था । अंकोरवाट आदि मंदिर रामायण से ओत–प्रोत हैं । हिंदू सभ्यता के 32000 (बीसी) तक के साक्ष्य मिलते हैं यद्यपि यह बहुत प्राचीन है । द्वारिका, अयोध्या हड़प्पा, मोहनजोदड़ो आदि सब इसी के अंग हैं । वस्तुत क्रिश्चियनिटी व इस्लाम की स्थापना से पूर्व सनातन धर्म विश्वव्यापी था । लेकिन अन्य सभ्यताओं के आक्रमण से सनातन संस्कृति रसातल में चले गई । वैटीकन सिटी का आकार शिवलिंगम् जैसा होना, जो संभवत: केवल संयोग मात्र न हो । लेकिन औपनिवेशिक मानसिकता से प्रभावित बासम व रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों ने राम को एक ‘जनजातीय’ नेता कहकर आंखों में पट्टी बांध दी । नील नदी के किनारे भी गंगा नदी की तरह धर्म के चिह्न विकसित हुए । मिश्र में सूर्यवंशी रामसेज का वर्णन आता है जो राम से ही निकला है । इनकी गाथाओं में आता है कि उनकी सभ्यता ‘समुद्र के पार पूर्व के देश’ से निकली । दुर्भाग्य से ओल्ड टेस्टामेंट व भारतीय ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन अभी नहीं के बराबर हुआ है, तथापि वहां पाया जाता है कि अनेक संदर्भ कहीं न कहीं भारत से जुड़े हैं । वस्तुत: श्री राम का नाम विश्वव्यापी रहा है । भारत में अयोध्या स्थित राजा धनदेव का संस्कृत अभिलेख 150 बी–सी– का है जो इस बात का साक्षी है कि अयोध्या नगर का भी गोरवपूर्ण इतिहास रहा है । अयोध्या जाकर सरयू में दीप जलाने की परंपरा बहुत प्राचीन है ।
कबीर व नानक ने श्रीराम को निर्गुण व निराकार रूप में देखा अर्थात उनके राम अयोध्या के राजकुमार दशरथ के पुत्र से भिन्न हैं, उनके राम अकाल, अजन्मा, अनाम और निराकार हैं । श्रीराम का स्वरूप कितना लोकप्रिय है इसका आँकलन इस तथ्य से कर सकते हैं कि सदियों से अधिकतम हिन्दुओं के नाम के साथ ‘राम’ शब्द जोड़ने की परम्परा रही है । लोग एक–दूसरे का अभिवादन ‘राम–राम’ कहकर करते हैं । यहां तक कि मृत्योपरान्त अन्तिम यात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ के उच्चारण की पुनरावृत्ति होती है । तुलसी ने श्रीराम को निर्धनों का रखवाला कहा है–तुलसी सोई जानिए, राम गरीब नवाज । यहां मान्यता यह भी है कि जो व्यक्ति मृत्यु के समय अन्तिम शब्द के रूप में ‘राम’ नाम पुकारता है वह मोक्ष प्राप्त करता है । गांधी जी के अन्तिम शब्द ‘हे राम!’ थे । श्रीराम हिंदुओं के महानायक भी हैं । यहां तक कि इकबाल ने भी श्रीराम को रूहानी नजर वाले इमामे हिन्द कहा और बताया ज्ञानी लोग जानते हैं कि वे नेकी का रास्ता दिखाते हैं–राम के वजूद पर हिन्दोसतां को नाज है । अहले नजर समझते हैं उनको इमामे हिन्द । रामायण में आता है–लोके नहि स विद्येत यो न राममनुव्रत: । अर्थात संसार में कोई ऐसा मानव नहीं है जो श्रीराम का भक्त न हो, क्योंकि वे आनन्द स्वरूप हैं । भारत में रामकथा लोकप्रिय रही है जिसमें पं. राधेश्याम शर्मा व यशवन्त सिंह वर्मा द्वारा संकलित ग्रंथ बहुत ही लोकप्रिय हैं । श्री राम के बारे में सागर निजामी लिखते हैं कि हिन्दियों के दिल में बाकी है मौहब्बत राम की । मिट नहीं सकती कयामत तक हुकूमत राम की ।
श्रीराम की मानव लीला में सभी गुण अनुकरणीय हैं श्री सीता व राम वैश्विक सभ्यता के प्रवर्तक, प्रेरक और शिल्पी है: 1– उन्होंने कभी भी झूठ नहीं बोला और वे एक बात को एक ही बार बोलते हैं । 2– उन्होंने अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में कभी सोचा तक नहीं–जेहिं सपनेहूं परनारि न हेरी । वे नारी सम्मान के प्रतीक हैं । उन्होंने एक विवाह की प्रथा प्रारंभ की । 3– वे सभी प्राणियों के प्रति प्रेम रखते हैं । उनमें दीन, दुर्बल, वंचितों के प्रति अद्भुत करुणा है, वे सदाशय हैं । श्री राम अनुग्रह, कृतज्ञता एवं कृपाभाव से ओत–प्रोत हैं । 4– उन्होंने कभी भी अपशब्द नहीं बोले, 5– कभी जुआ नहीं खेला, 6– कभी भी अपने द्वारा दिये हुए को याद नहीं किया, 7– कभी भी स्वयं को तुच्छ नहीं माना, 8– वे सदैव प्रशन्न मुद्रा में संवाद प्रारंभ स्वयं करते हैं, वे सभी का सम्मान करते हैं । 9– उन्होंने व्यक्ति की बुराई नहीं, अपितु अच्छाई पर बातें की, 10– सदैव सामाजिक मर्यादा को प्रश्रय दिया, 11– वे स्वल्पाहारी एवं संयमी हैं, 12– वे सदैव ओजश्वी, गौरवशाली, रमणीय, धैर्यवान, शोर्यवान व कर्मयोगी हैं, 13– शरणांगत की किसी भी कीमत पर रक्षा करते हैं । 14– उन्होंने कभी भी अधर्मियों का साथ नहीं लिया । ऋषि शरभंग की सिद्धियों को लेने से उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया कि यह महात्मा के तपोबल से कमाई सम्पत्ति को छीनना जैसा है । वे केवल अपने कर्म व पुरूषार्थ का फल चाहते हैं, दान, भिक्षा व उपकार नहीं । 15– श्री राम कहते हैं कि‘ मुझे मृत्यु का भय नहीं रहता अपितु अपनी मर्यादा व कीर्ति (यश) दूषित होने का भय रहता है– न भीतो मरणादस्मि केवलं दूषितो यश: । 16– श्री राम की लोकप्रियता जगत व्याप्त है लेकिन उन्होंने कभी भी किसी जादू या चमत्कार का सहारा नहीं लिया । 17– श्री राम समन्वयकारी एव न्यायकारी हैं । वे समता व लोकतंत्र के प्रतीक हैं अत: नाम रामायण में वाल्मीकि ने उन्हें सकलस्वीय समानत राम कहा है । इसी प्रकार श्रीराम महान इक्ष्वाकु वंश के राजकुमार होकर भी वंचित, निर्धन, स्त्री आदि के संरक्षक बने और उन्होंने त्यागपूर्वक सामान्य जीवन की एक मिशाल रखी जो बड़ी शिक्षा देती है । 18– श्री राम आदर्श राज्य के जनक हैं और जो भी मर्यादा व करूणा आज के भारतीय समाज में हमें मिलती है उसका प्रमुख श्रोत श्री राम ही हैं । श्री राम हिंदुओं के महानायक भी है । 19– श्री राम में अद्भुत संयोजन है वह भी भूमिकाओं में द्वन्द्व के बिना । वे संत भी हैं और क्षत्रिय धर्म के प्रतीक भी, वे राजा भी हैं और त्याागी भीय वे गृहस्त भी हैं और सन्यासी भी । अत: वे संत, शासन, सैनिक, गृहस्त आदि सभी के प्रेरणाश्रोत हैं । अत: विश्व के कल्याण हेतु, श्रीराम का कथानक विश्व भर में प्रसारित हो । रामं राम महाबाहौ अर्थात हमारे हृदय में रहने वाले महाबली, यही क्षात्र धर्म है अर्थात अपनी व समाज की रक्षा का समार्थ्य । 20– श्री राम ने यह दर्शाया कि नियम, प्रेम, त्याग, धर्म व मर्यादा के आधार पर संयुक्त परिवार कैसे सुख सम्पत्ति का स्त्रोत बनता है । 21– एक आदर्श जीवन कैसे जिया जाए इसे आचरण से उन्होंने दर्शया ।
गीत गोबिन्द की अष्टपदी में प्रत्येक अवतार का जयगान हुआ है, जो अद्भुत है । प्रथम पद का प्रारंभ ‘प्रलय पयोधि जले’ से होता है और प्रत्येक पद का समापन जय जगदीश हरे से होता है । इस प्रकार ईश्वर स्वयं सृष्टा व सृष्टि दोनों ही है इसीलिए कहा है–साधो! यह जग राम बगीचा । अर्थात ईश्वर सर्वत्र है । सर्वेश्वर का यह दर्शन ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में आया है–हरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिरन्नं प्रजापति: । हरि: सर्वशरीरस्थो भोक्ते भुज्यते हरी:॥ अर्थात हरि ही दाता है, हरि ही भोक्ता है, हरि ही अन्न है और हरि ही प्रजापति (सृजनहार) है । हरि सर्व शरीर में विद्यमान है और भोजन तथा भोज्य दोनों ही हरि है ।
कोई पूछे कि सभी अवतार भारत में ही क्यों अवतरित हुए ? दूसरे महाद्वीपों में क्यों नही ? वस्तुत: प्राचीन शास्त्रों में भारत शब्द प्राय: पूरी पृथ्वी के लिए प्रयुक्त हुआ है । पृथ्वी का विविध देशों में विभाजन मानव निर्मित है । हां भारत की भूमि ने इस ज्ञान को पकड़ा और पल्लवित किया । भगवान शिव को यूरोप व अफ्रिका में भी देखा जा सकता है । आज श्री कृष्ण के अनेक भक्त विभिन्न देशों में है और वृन्दावन अमेरिका में भी स्थापित हुआ है । वे विश्वानाथ हैं, जगन्नाथ हैं , जन्माता हैं । प्राचीन शिवालय व शक्तिपीठ विश्व के अनेक क्षेत्रों में स्थित हैं लेकिन हमें अभी इसका ज्ञान नहीं है । भारत को विश्व का हृदय कहा है और अवतार हृदय में ही अवतरित होते हैं । इसी प्रकार भारत धर्म कर्म मोक्ष की भूमि है अत: अवतार यही उत्पन्न हुए । (गीता प्रैस का अवतार कथांक पढें) ।
किसी हिन्दू का अपने ईश्वर के प्रति सम्बन्ध एक स्नेही, करुणामयी पिता या ममतामयी माता और उसकी सन्तान का है, एक नित्य सहारा देते अनन्य मित्र का है और सहोदर का है । भगवान कृपा निधान हैं भगवान कहते हैं कि–ये यथामाम प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम । अर्थात जो जिस भाव व मात्रा में भगवान की भक्ति करता है वे भी उसी रूप में उसका भजन करते हैं । भगवान हमको और हम भगावान को देख रहे हैं । अर्थात यह संबंध एकपक्षीय नहीं है । हिन्दू धर्म में भगवान से भय होने का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि यह सम्बन्ध मालिक, लार्ड व प्रजा या सेवक येमतअंदजद्ध का नहीं है । यहां भगवत भय यळवक मिंतपदहद्ध जैसा कोई शब्द नहीं है अपितु धर्म भीरू और कर्म भीरू आता है । हिन्दू धर्म में ईश्वर को खुश करने हेतु कुछ नहीं किया जाता । मनुष्य का जीवन–मरण, सुख–दु:ख सृष्टि के नियम व व्यक्ति के कर्मों का परिणाम हैं न कि ईश्वर निर्णय । यह एक ऐसी दृष्टि है जो व्यक्ति को दी गई स्वतंत्रता के अस्तित्व को स्वीकारती है ।
सनातन धर्म का एक अनुपम लक्षण यह है कि इसमें मनुष्य को प्रश्न पूछने, शास्त्रार्थ व संवाद का अधिकार है और जिसे ज्ञान के प्रसार का मूल भी माना है–वादे वादे जायते तत्व बोध । ज्ञानियों से ही नहीं अपितु भगवान व देवताओं तक से सामान्य व्यक्तियों द्वारा प्रश्न पूछे गए हैं । यहां कोई भी ऐसा ग्रंथ नहीं है जो प्रश्नोत्तरी रूप में न हो । गीता में स्वयं भगवान से एक सामान्य मानव अर्जुन प्रश्न करता है । अर्जुन यहां तक कहता है कि हे कृष्ण यदि आप भगवान हैं तो इसके प्रमाण दो । इन प्रश्नोत्तरियों में अलौकिक ज्ञान निहित है । योग वाशिष्ट में श्रीराम के प्रश्नों का उत्तर ऋषि वशिष्ठ दे रहे हैं । कठोपनिषद् में नचिकेता के प्रश्नों का उत्तर यमराज दे रहे हैं । अष्ठावक्र गीता, जो अध्यात्मिक ज्ञान–विज्ञान का बेजोड़ गं्रथ है, में ऋषि अष्टावक्र व राजा जनक के बीच संवाद है । वेद व उपनिषद भी प्रश्नोत्तर शैली में हैं । इसी प्रकार लक्ष्मण व रावण संवाद, अंगद–रावण संवाद, शिव–पार्वती संवाद, काक भुशुंडी–गरुड संवाद, याजवल्क्य–गार्गी आदि । यक्ष प्रश्न यसपमि जीतमंजदपदह ुनमेजपवदेद्ध तो अद्भुत हैं । इसी प्रकार युधिष्टर–भीम संवाद, धृतराष्ट्र–विदुर संवाद, गरुड–श्री विष्णु संवाद, शंकराचार्य–मंडन मिश्र संवाद यजिसमें मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती नामक महिला अध्यक्ष व निर्णायक थी, आदि अनेक संवाद अलौकिक हैं । बौद्ध व जैन ग्रंथ भी प्रश्नोत्तरी रूप में है । जहॉ भगवान बुद्ध एवं महाबीर स्वामी के वचन निराकरण के रूप में मिलते हैं । यह मंथनों की संस्कृति है जहां देव व असुर संग्राम में भी मंथन होता है । दूसरी अति महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि मनुष्य जन्म से पवित्र है अर्थात वह जन्म से पापी नहीं है यीनउंद इमपदह पे दवज ेपददमते इल इपतजीद्ध । तुलसी कृत विनय पत्रिका में व्यक्ति अपने मन से संवाद कर रहा है जिसमें जीवात्मा गुरु तथा मन शिष्य की भूमिका में है ।
उपनिषद् कहते हैं कि ईश्वर उन सभी में है जो गतिमान हैं, वह उन सभी में है जो विशुद्ध हैं, स्वच्छ हैं, वह पूजा में है, वह घर के अतिथि में, शरीर की आत्मा में है, वह मनुष्य, जल, पशु, सत्य में है, वह ब्रह्माण्डीय सन्तुलन में है, लय में है, सर्वत्र है (कठोपनिषद् 2–182) ।
गीता संदेश
ज्ञातव्य है कि गीता का सार वह नहीं जो आजकल प्रसारित किया जा रहा है कि ‘‘तुम क्या लाए थे और क्या ले जाओगे । जो हो रहा है ठीक हो रहा है, जो होगा वह भी ठीक होगा’’ । अपितु गीता का सार है कि उठो, जागो, पुरूषार्थ करो और लौकिक व पालौकिक उन्नयन प्राप्त करो, कर्मठ बनो, आत्म ज्ञान प्राप्त करो, आशा व उत्साह से पूर्ण रहो, आतताइयों के सामने गाण्डीव उठाओ, अभय बनो, बलिष्ठ बनो, सदैव विवेकी एवं जागृत रहो, धर्म राज्य की स्थापना करो और ऐश्वर्य वर्धन करो । गीता इतना प्रभावशाली ग्रंथ है कि इसका विविध भाषाओं में अनुवाद करने वाले विदेशी विद्वान स्वयं भी सनातन धर्म या कृष्ण धर्म अपना लिए थे । गीता को सभी वि/याओं से श्रेष्ठ अत: ब्रह्म विद्या कहा है । इसमें वेदों का सार निहित है । गीता धर्म व आस्था का ग्रंथ ही नहीं अपित जीवन जीने का मैनुवल भी है । ज्ञातव्य है– अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम अल्पश्च कालो बहवश्य विघ्ना । यत् सारभूतं तदुपासितव्यं हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्ययात् अर्थात पढ़ने के लिए बहुत से शास्त्र हैं और ज्ञान अपरिमित है । अपने पास समय की कमी है और बाधाएं बहुत हैं । ऐसे में जैसे हंस पानी में से दूध निकाल लेता है उसी तरह हमें विविध शास्त्रों का सार समझ लेना चाहिए ।(गीता 2–46) । मनुष्य कर्म को सेवा व अर्पण भाव से करे, समता की दृष्टि रखे तथा जगत को भगवान का विराट रूप माने । गीता का एक बड़ा संदेश है कि व्यक्ति भ्रम एवं संशय की स्थिति से निकले, अपने मन को मित्र बनाये । गीता का उपदेश है कि मनुष्य कर्मयोगी बने, निर्लिप्त व साक्षी भाव रखे और शुभ संकल्प रखे । श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस व्यक्ति पर वे अनुग्रह करते हैं उसमें वे निर्लिप्तता ले आते है । किन्तु गीता का सबसे बड़ा संदेश है कि सभी श्री कृष्ण की शरण में आयें ।
गीता उपदेश महोत्सव (शु. एकादशी) : मोक्षदायी एकादशी को गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है । भागवत गीता एक ऐसा विलक्षण ग्रंथ है जो विद्वानों ही नही निरक्षर के लिए भी बोधगम्य हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ घर, कार्यालय, होटल आदि में गीता रखे । गीता समस्त प्राणियों के लिए सर्वदा कल्याणकारी है । भगवत गीता में श्री कृष्ण ने 56 विशिष्ट विभूतियों का वर्णन किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि महीनों में वे मार्गशीर्ष माह हैं अर्थात यह श्रेष्ठ माह है । ऐसा इसलिए कि इस माह की शुक्ल एकादशी को श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था । इसे मोक्षदा एकादशी भी कहते हैं । गीता में श्रुति व स्मृति ग्रंथों का सार निहित है । इनमें जीवन का लक्ष्य व जीवन जीने का मार्ग भी बताया गया है । यह ऐसा अप्रतिम ग्रंथ है जिसमें भगवान स्वयं बोल रहे हैं । यह सार्वभौमिक यनदपअमतेंसद्ध संदेश लिए है । यह प्राणी जाति का दिव्य ग्रंथ है–गीता ।
गीता प्रेस गोरखपुर : भागवत गीता के प्रसार हेतु स्थापित गीता प्रेस का हिन्दू धर्म के पुनर्जागरण में अप्रतिम स्थान है । प्रारंभ में भागवत गीता को जन–जन तक उपलब्ध करने से लेकर अनेक अमूल्य पुस्तकों के संरक्षण, अनुवाद व अनेक भाषाओं में जन–जन तक न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध करने में गीता प्रेस ने अतुलनीय भूमिका निभाई है । यह संस्था गीता, रामायण व दुर्गा संप्तसती की सौ–सौ करोड़ से अधिक प्रतियां वितरित कर चुकी है । गीता प्रेस में उपलब्ध अनेक पुस्तकों की रचना महान सन्तों ने की है अथवा प्राय: ऐसे लेखक हैं जिनका नाम नहीं लिखा है, जो प्राचीन परम्परा रही है । विश्व की सर्वाधिक बिकने वाली गीता के अनुवादक का नाम भी नहीं लिखा है । गीता प्रेस से निकलने वाली कल्याण नामक मासिक पत्रिका ने तो एक आध्यात्मिक चिन्तन की अलख सी जगा दी है । अनेक विषयों पर कल्याण के वार्षिक विशेषांक सन् 1926 से निकल रहे हैं जो गंभीर दर्शन को छूते हैं तथा अद्भुत हैं । एक विशेष तथ्य है कि अनेक भाषाओं में उपलब्ध गीता प्रेस का सम्पूर्ण प्रकाशन कापीराइट मुक्त है । अंग्रेजी में कल्याण कल्पतरू नाम मैगजीन निकलती है । एक मानवतावादी विश्व की रचनां की रूपरेखा प्रस्तुत करने में गीता प्रेस के प्रयास अतुलनीय और क्रान्तिकारी है ।
अन्य वैदिक ग्रंथों के अर्न्तगत धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, काव्य, भाष्य आदि आते हैं । वेद, उपनिषद्, पुराण, गीता, रामायण आदि ग्रंथों के पठन–पाठन व प्रसार को ब्रह्मयज्ञ कहा है जो पंचमहायज्ञों (ग्रहस्थों द्वारा किये जाने वाले पंच यज्ञ) में एक हैं।
ग्रंथों को सात्विक व दास्य भाव से, श्रद्धा से पढ़ें, ज्ञातव्य है कि रावण भी वेदों का ज्ञानी था, किंतु उसमें घमंड था, भक्ति नहीं थी ।
राम चरित मानस की रचना तुलसीदास जी ने की । इस ग्रंथ की विशेषता है कि जहॉ इसमें आए दोहे व चैपाई अवधी (हिन्दी) भाषा में हैं वही इसमें आई अद्भुत स्तुतियां संस्कृत में हैं, जिसके चलते ये स्तुतियां पूरे भारत में विविध भाषायी राज्यों में पूजा हेतु प्रयुक्त होती है । हिन्दु धर्म में तुलसीदास जी का स्थान एक उद्धारक, रक्षक, एवं त्राता का है (दिनकर) । तुलसीदास जी भारत के राष्ट्र संत हैं । जार्ज ग्रियर्सन ने संत तुलसीदास को भगवान बुद्ध के उपरान्त सबसे बड़ा अवतार कहा है ।
कल्पसूत्रों में जीवन के नियम हेतु सोलह संस्कार, नीति, रीति, धर्मादेश, पूजा, यज्ञ आदि का वर्णन है । इन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है: श्रोत सूत्र, गृह सूत्र तथा धर्म सूत्र ।
वेद अनादि और सनातन हैं । वेद अतीत जीविता को प्रोत्साहन नहीं देते और वेद अपनी विषय वस्तु को अपार व्यापक फलक पर चित्रित करते हैं । लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के लिए वेदों को पढ़ना आवश्यक नहीं है । उन्हें समझना भी दुरूह है अत: उनके मर्म को समझें जिसे गीता, रामायण तथा संतों की वाणी में दिया है । तथापि वेदों व भारतीय दर्शन को समझने के लिए तत्व चिंतामणि नामक ग्रंथ पूर्व में प्रकाशित सर्वोंपयोगी लेखों का संग्रह है ।
ज्ञातव्य है कि सनातन धर्म में केवल एक धर्म ग्रंथ या एक धर्मगुरु नहीं है किंतु यहां सभी धर्मग्रंथ भिन्न–भिन्न शब्दों एक ही बात समझाते हैं अर्थात कथानक एक है । यहां अनेकों ग्रंथों में उपरोक्त बातें ही समझाई जा रही हैं । जहां उपनिषद् ज्ञानियों को समझाने हेतु हैं, वहीं पुराण व इतिहास ग्रंथ जन–जन, अशिक्षित या सामान्य व्यक्तियों को उनके सांस्कृतिक परिवेश के अनुसार समझाते हैं । एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वर्ण, आश्रम, स्त्री–पुरुष की स्थिति आदि सामाजिक व्यवस्थाएं रही हैं अर्थात धर्म दर्शन में ये गौण विषय हैं । मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतिकारों तथा अनेकों ग्रंथों में धर्म की परिभाषाएं दी गई हैं जिसमें कोई एक भी परिभाषा वर्ण व्यवस्था को धर्म का अंग नहीं मानती । अर्थात जो काल कवलित न हो, धर्म वही हैं ।
षड्दर्शन कौन से हैं : सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और वेदांत (उत्तर मीमांसा) । इसके अतिरिक्त जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव व चार्वाक दर्शन हैं । चार्वाक के अतिरिक्त सभी दर्शन धर्म, कर्मफल, पुनर्जन्म व मोक्ष (निर्वाण) में आस्था रखते हैं । ये सभी धर्म परम्परा के दर्शन अर्थात हिन्दवी धर्म हैं । इसी प्रकार सम्पूर्ण भारतीय दर्शन की एक विशेषता है कि यह ईश्वर केंद्रित न होकर मानव केंद्रित है, कि मानव को दु:खों से मुक्ति कैसे मिले । वैदिक दर्शन व ग्रंथों के कुछ गूढ़ विषयों का सार ब्रह्म सूत्र तथा मीमांसा सूत्र में आया है । ब्रह्मसूत्र को वेदान्त सूत्र भी कहते हैं और यह ज्ञान के क्षेत्र में गीता तथा उपनिषदों जितना ही महत्वपूर्ण है । ब्रह्मसूत्र में मानव अस्तित्व, ब्रह्माण्ड तथा ब्रह्म (ईश्वर) की व्याख्या हुई है । ब्रह्म सूत्र जहां दर्शन के आन्तरिक विषयों को छूता है वहीं मीमांसा में बाह्य धर्माचरण, कर्म, नित्यकर्म, जीवन जीने की शैली (जैसे– व्यावहारिक आदि– पहलुओं पद केन्द्रित है ।
चार वेदों के चार महावाक्य हैं: ‘प्रज्ञांन ब्रह्म’, ‘अमय आत्मा ब्रह्म’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ तथा ‘तत्वमसि’ । इसी प्रकार ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ है । हमारा लक्ष्य हो कि इन ब्रह्मवाक्यों को विश्व स्तर पर स्थापित करें । ये महामाव्य जगत कल्याण की पृष्ठभूमि बनाते हैं । ये महावाक्य प्रेरक मंत्र है । ये सभी देशों के संविधानों के अंग बनें, ऐसा प्रयत्न हो । शास्त्र कहते हे कि वेदों में जिन्हें आस्था नहीं है, उन्हें भ्रमित समझें।
जीवन की प्रमुख क्रियाएं एवं उन्नयन
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उपासना, संध्या, पूजा, अर्पण व तर्पण : उपासना के अर्न्तगत यम, नियम, योग, व्यायाम, आसन, ध्यान, नित्य कर्म, घर या मंदिर में संध्या, नित्य पाठ, पूजा, यज्ञ, धर्म प्रचार व दीक्षा देना, प्रायश्चित्त, साधना, भक्ति, गायन, धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन (स्वाध्याय), मौन व्रत जैसी क्रियाएं आती हैं। ये सनातन हिन्दू धर्म चिंतन में व्यक्तिगत व सामाजिक अनुशासन के स्त्रोत्र भी हैं चूंकि अनुशासन हेतु यहां कोई धर्मादेश नहीं है। अतः यह अनुशासन स्वप्रेरित है। नित्यकर्म में वे कर्म भी आते हैं जो जीविकोपार्जन से जुड़े हैं और पुरुषार्थ से प्रेरित हैं। वेदों में सूर्योदय से पूर्व नीद से जगने को बहुत उपकारी बताया है-सुवाति सविता भगः। सूर्योंदय से पूर्व जगने से स्वास्थ, आभा व तेज प्राप्त होता है (अर्थव. 7.14.2) । ईश्वर का स्मरण करना, जप और उसके प्रति समर्पण उपासना का सर्वोत्तम रूप है। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता हो और साक्षी भाव हो। मानस में ईश्वर, श्रुति व संत विरोधी व्यक्ति को मरे हुए प्राणियों में गिना है: सदा रोगबस संतत क्रोधी। विष्णु बिमुख श्रुति संत विरोधी।
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कितनी अवधि तक हो उपासना : उपासना, प्रार्थना, पूजा आदि उन्नयन ..evolution | प्रदान करते हैं और जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा होगा, तथापि अपने नित्य कर्मों, दायित्यों, कार्यों को करते हुए उपासना अवश्य करें। गीता में आता है कि छोटा सा प्रयास भी बहुत है (2.40, 6.41)।
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पर्व, उत्सव, व्रत एवं उपवास : हिन्दू पर्वों तथा सामूहिक कार्यक्रमों में भाग लेना, यथा-संभव प्रतिदिन या मंगल, शुक्रवार आदि को मंदिर जाना, एकादशी को उपवास रखना, प्रसाद-चरणामृत तथा पकवान बनाना व ईश्वर व जीवों को परोसना, मानव तथा पशु-पक्षियों को भोजन देना, दान देना, परोपकार, सेवा, परिवार व स्वधर्मियों के साथ समय बिताना, आनन्द मनाना आदि इसके अन्दर सम्मिलित हैं। गीत-संगीत भी वेदों से आता है और यहां प्रत्येक सत कर्म व संस्कार से पूर्व संगीत समारोह होता है। सामवेद संगीत का स्रोत है। नारद, भरतमुनि, त्यागराज आदि ने इसका विस्तार किया। उत्तरकाण्ड के सर्ग 94 में दी गई संगीत की परिभाषा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र पर ही आधारित है। रामायण विश्व का प्रथम गीत काव्य है।
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दान, वैश्वदेव एवं कल्याण कर्म या सेवा: वरिष्ठ सदस्यों, बच्चों, निर्धन, अशक्त, दुर्बलांग, वंचितों के प्रति अपना दायित्व निभाना तथा धर्मपरायण रहने का वचन लेना और इस ओर कार्य करना। वैश्व देव अर्थात देव, पितर व जीवों को भोजन व तर्पण देना। धर्म का प्रचार-प्रसार करना, पर्यावरण हेतु कार्य करना, रोगियों की सुधि लेना, योग, आयुर्वेद, शाकाहार आदि को प्रोत्साहन देना, आदि। अपनी पीड़ा को सह लेना और दूसरों को पीड़ा न पहुंचाना तपस्या का स्वरुप है(संत तिरुवल्लुवर)।
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संस्कार, वर्णाश्रम, कर्मकांडों का निर्वहन : सामाजिक व्यवस्था के निर्वहन तथा व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक उत्थान हेतु संस्कार व कर्मकांड पूर्णतः तर्क आधारित अनुष्ठान हैं। अनुष्ठान, तर्पण व पिंड दान सभी के लिए आवश्यक हैं चाहे वे किसी धर्म या रैलीजन के हों। श्रेष्ठ जीवन प्राप्त करने तथा जीवन के विभिन्न सोपानों (life cycles) में प्रवेश हेतु संस्कार कर्म (rite de passes) किये जाते हैं। संस्कार का तात्पर्य है जीवन में ज्ञान, विज्ञान, विनय, संस्कृति तथा अनुशासन लाना। इसीलिए शास्त्र कहते हैं कि जन्म से सभी शूद्र हैं और ये संस्कार ही हैं जो व्यक्ति को द्विज बनाते हैं। अर्थात उन्नयन लातें है। प्रत्येक संस्कार कर्म का एक लक्ष्य रहता है जैसे उपनयन एक व्रत अर्थात संकल्प है कि मैं ऐसा बनूंगा। विवाह संस्कार पुरूषार्थ का प्रण है। अतः जीवन को सार्थक बनाने हेतु संस्कार किये जाते हैं। बच्चे के नामकरण पर उसे आशीर्वाद के रूप में कहते हैं कि ‘‘त्वं आयुष्मान, वर्चस्वी, तेजस्वी, श्रीमान भूयाः’’। अर्थात हे नवजात! तू दीर्घ जीवी, विद्यावान, यशस्वी, धर्मात्मा, पुरुषार्थी, प्रतापी, परोपकारी और श्रीमान होवे। जनेऊ (उपनयन) एक अर्थपूर्ण बहु-आयामी संस्कार है जिसमें एक जगह भिक्षाम् देहि आता है जिसे कहने के पीछे गूढ़ अर्थ है। यह ज्ञान की भिक्षा है, समर्थ बनने की ललक और पुनः गुरु बनने का प्रण व झुकने का अभ्यास है। पुजारी, ब्राह्मण, पुरोहित आदि को जनेऊ अवश्य पहिननी चाहिए, जो उनको अपने कर्तव्यों का स्मरण भी कराती रहेगी। विवाह एक यज्ञ है। विवाह संस्कार में वर अपनी वधू से कहता है-‘‘ममेयमस्तु पोष्याः शं जीव ‘शरदः’ शतम्। अर्थात मेरे साथ तुम सौ शरद ऋतुओं पर्यन्त सुखपूर्वक जीवन यापन करो। लाज होम के दूसरे मंत्र में वधू कहती है: आयुष्मानस्तु मे पतिः। अर्थात मेरा पति लंबी आयु वाला हो, उसका दीर्घ जीवन हो। उपरोक्त कथन के प्रत्युत्तर में वर बोलता है-ओउम् तच्चक्षुर्देवहितं...स्याम शरदः शतम् भूयश्च शरदः शतात् ।। अर्थात मुझ पति के साथ प्रजावती होकर तुम सौ वर्ष पर्यन्त आनंद पूर्वक जीवन धारण करो।संस्कार जीवन यात्रा में मील के पत्थर हैं। शास्त्रों के अनुसार संस्कारों में जन्मजात दोषों का परिमार्जन तथा नवीन गुणों को उत्पन्न करने की क्षमता है। गर्भाधान संस्कार के बारे में आया है कि जिस आहार, व्यवहार व चेष्टा के साथ नर व नारी समागन करेंगे उनकी संतति का स्वभाव वैसा ही होगा (सुश्रुत संहिता)। सभी संस्कार शुभ कामनाओं व संकल्पों से भरे होते हैं। अथर्ववेद में बच्चे के निष्क्रमण संस्कार में जो श्लोक आते हैं उनका अर्थ इस प्रकार हैः हे शिशु यह धूलोक व पृथ्वी तुम्हारे लिए मंगलकारी व हितकारी होवें। सूर्य तुम पर अपना तेज बिखेरे, वायु तुम्हारे हृदय को कल्याणकारी, तेजोमय व यशस्वी बनाए। पवित्र जल तुम्हारे शरीर में जाकर उसे दिव्य बनाए। (8.2.14)। चूणाकर्म संस्कार में कामना होती है तुम दीर्धायु होवो, संसार के लिए उपयोगी होवो, तुम्हें भोजन पच जाए, जो करो उसमें सफल होओ, गौरव व ऐश्वर्य पाओ, तुम्हारा सुखी परिवार हो व बच्चे प्राप्त हों, सुयश पावें। यज्ञोपवीत, शिखा, टीका आदि बाह्य आवरण व्यक्ति को कुमार्ग पर जाने से सावधान करते हैं तथा सन्मार्ग में चलने के लिए प्रेरित भी करते रहते हैं, समर्थ व उच्च वर्ग हेतु तो संस्कारों का निर्वहन आवश्यक है, अन्य वर्गों में उच्च वर्ग से प्रभाव आ जाएगा। इन अवसरों पर व्यक्ति अपने समूह के पास आकर आत्मीयता भी स्थापित करता है तथा ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करता है। अतः संस्कार सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठान हैं। सनातन धर्म में जीवन की व्याख्या एक धर्म चक्र के रूप में की जा सकती है। संस्कार किसी व्यक्ति के जीवन से जुड़े वे कर्म हैं जो उसको पूर्णता की ओर ले जाते हैं। उसे सन्मार्ग की ओर ले जाते हैं तथा उसे लौकिक व पारलौकिक सुख, शांति प्रदान करते हैं। उपनिषदों में बताया है कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति हेतु संस्कार आवश्यक साधन हैं। संस्कारों से मानसिक व शारीरिक विकास होता है। संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति का उसकी आत्मा से साक्षात्कार होता है तथा उसका सामुदायिक जीवन व बन्धुत्व बढ़ता है। संस्कार मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियों को भी नियंत्रित करते हैं। वेद व्यास द्वारा बताए गए जिन सोलह संस्कारों को महत्त्वपूर्ण माना गया है उनमें तीन संस्कार अर्थात नामकरण, विवाह व अन्त्येष्ठि संस्कार का निर्वहन करना अनिवार्य है। संस्कार व कर्मकांड की उपयोगिता पर संदेह न करें। ये ऋषियों के अकाट्य ज्ञान पर आधारित हैं।आश्रम व्यवस्था देह, मन व आत्मा की यात्रा के अनुरूप जीवन का नियमन है जो आज विक्षिप्त हो गई है। मनुस्मृति में आया है कि जब एक गृहस्थ बृद्ध होने लगे तो अगली पीढी को उत्तरदायित्व सोंप दे और वानप्रस्थ आश्रम अर्थात वृहद लक्ष्यों हेतु जिए(4.257)। यह निर्लिप्त जीवन की ओर प्रस्थान है (छान्दों 3.6.5) तथा महात्माओं की संगति से आत्मा की यात्रा को आगे ले जाना है (अथर्व 9.5.1)। चौथी अर्थात सन्यास की अवस्था में व्यक्ति सभी ऋणों को चुकाकर, सभी प्रकार के मोह माया व लिप्तता का त्याग करे (मनु. 6.33) । आध्यात्म परायणता, निरपेक्ष, निरामिष, आत्मा की सहायता से सुखपूर्ण विचरण ही सन्यास है (मनु 6.49)। गीता में उसे सन्यासी व योगी कहा है जो निष्काम कर्म करे। आश्रम व्यवस्था आयु के साथ आने वाले हार्मोनल व मानसिक परिवर्तनों के साथ जीवन ढालने की कला भी सिखाती है। ज्ञातव्य है कि चौथी अवस्था में इंद्रियां सिथिल किंतु मन उदार हो जाता है।आश्रम व्यवस्था सामाजिक संदेश लिए है कि आयु के किस पड़ाव में क्या करें। वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम का सबसे बड़ा संदेश यह है कि तीसरी व चौथी अवस्था वाले व्यक्ति परिवार व समाज के मार्गदर्शक (guide) हैं। सभी उनको सम्मान दें। उनको अभिवादन करें, उनका आशीर्वाद फलीभूत होता है । अग्रज जन अनुभवों से भरे हैं, उन्हें न त्यागें तथा वे बृद्ध केवल शरीर से हैं बुद्धि से परिपक्व हैं। उन्हें बृद्धावस्था घरों में रहने को न बाध्य करें। जो व्यक्ति व समाज अपने वरिष्ठ जनों का सम्मान नहीं करता वह अभिशप्त है, उसका पतन सुनिश्चित है।गुण और आश्रम व्यवस्था का अनुसरण भी महत्पवूर्ण हैं। जीवन को चार भागों में बांटा है, पहला ब्रह्मचर्य आश्रम है जब व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करता है। जहां आचार-विचार की शुद्धि अनिवार्य मानी है, यह 18 से 25 वर्ष की आयु तक रहता है। दूसरा गृहस्थ आश्रम है जब धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति हेतु समर्पण होता है। तीसरा आश्रम वानप्रस्थ कहलाता है जो 60 वर्ष के उपरान्त आता है। वानप्रस्थ अवस्था में गृहस्थ के मोह से निकलने का प्रयत्न होता है अर्थात परिवार ही नहीं अपितु सबके प्रति ममता का भाव उत्पन्न करना। अंतिम पड़ाव सन्यास आश्रम है जो 75-80 वर्ष के उपरान्त का काल है जिसमें व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह परिवार, समाज व संसार से पूर्णतः निर्लिप्त हो जाए, सभी के प्रति समभाव रखे और अपने-पराये का भेद न रखे। इसी प्रकार वर्ण व्यवस्था मूलतः व्यक्ति के गुण, कर्म व उपलब्ध विभागों के अनुसार श्रम विभाजन है इसीलिए तो द्रोणाचार्य व अश्वत्थामा आदि ने ब्राह्मण होकर शस्त्रा उठाए तथा व्यास व वाल्मीकि शूद्र कुल में जन्म लेकर भी ब्राह्मण बन गए, इत्यादि।त्रिगुणात्मक अस्तित्व एवं उन्नयन : सत, रज व तम शरीर अर्थात माया (प्रकृति) के धर्म हैं। ईश्वर इनसे परे है। आध्यात्मिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति की पांच अवस्थायें हैं। जो तीन गुणों से संबद्ध है। शूद्र अवस्था अन्नमय कोष है जो इन्द्रिय सुख तथा भोग तक सीमित है अतः तमो गुणी है। वैश्य प्राणमय कोष, जो जीवन के संचालन से जुड़ा है और यह तम और रज से जुड़ा है जिसे संतुलित करना है। क्षत्रिय मनोमय कोष है जो रजोगुण युक्त है और जिसे नियंत्रित करना है। ब्राह्मण तत्व ज्ञानमय कोष है जो सतोगुणी है और इन सबसे ऊपर शुद्ध सत्व वाला आनन्दमय कोश है। जिसकी प्राप्ति प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य है। शुद्ध सत्व से सतोगुण तथा सतोगुण से रजोगुण व तमोगुण का नाश होता है। गुण मानसिक स्थितियां है और मन साधने का विषय है। तमोगुण से विपरीत बोध होगा जैसे धर्म मार्ग अधर्म लगने लगे। शत्रु को मित्र समझना आदि। रजोगुणी बुद्धि में सत व तम दोनों का भाव रहता है। सतोगुण में भ्रम नहीं रहेगा। प्रत्येक व्यक्ति के मन में ये तीनों गुण-सत, रज, तम रहेंगे। ये प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्वाभाविक रूप से स्थित हैं। ब्रह्म इनसे परे शुद्ध चैतन्य हैं जिस ओर मनुष्य का उन्नयन हो अर्थात व्यक्ति आनन्दमय कोष की ओर बढ़े।वर्ण त्रिगुणात्मक सृष्टि का द्योतक एवं मानसिक व शारीरिक श्रम विभाजन का सिद्धान्त है। पुरुष सूक्त के श्लोक में चारों वणों को ईश्वर से निकला माना है इसीलिए इन्हें अमृत पुत्र कहा है। अतः सभी जन्म से पवित्र हैं। पुरुष सूक्त का एक श्लोक बताता है कि ब्राह्मण का काम मुंह की भांति ज्ञान प्रसार, क्षत्रियों का हाथों की तरह सुरक्षा देना, वैश्य का जंघाओं की भांति पोषण तथा शूद्र का काम पैरों की भांति सम्पूर्ण शरीर की सहायता करना है। जिनमें सात्विक गुणों की प्रधानता हो वे ब्राह्मण, रजोगुण की प्रधानता वाले क्षत्रिय व वैश्य एवं तमोगुण की प्रधानता वाले वैश्य व शूद्र बनें। वर्णों को एक शरीर माना है कोई ऊँच-नींच नहीं। वस्तुतः यहां प्रत्येक वर्ण से अपेक्षा रहती है कि वह अपना दायित्व निर्वाह पूर्ण समर्पण से कर रहा है। आज के संदर्भ में शिक्षक, शोधार्थी, वैज्ञानिक, पुरोहित, पुजारी, लेखक आदि ब्राह्मण हैं। सैनिक, राजनेता, पत्रकार, पुलिस, नौकर शाह, सुरक्षाकर्मी आदि क्षत्रिय तथा उद्योगपति, व्यवसायी, कृषक आदि वैश्य एवं सेवक, श्रमिक, कर्मचारी आदि शूद्र कहलाएंगे। वर्ण पूरे विश्व में एक स्वाभाविक व्यवस्था है लेकिन भारत में यह दुर्भाग्य से जन्म आधारित बन गई जो वेद विरूद्ध है। वर्ण व्यवस्था वस्तुतः अपने व्यवसाय पर ध्यान देने से संबंधित है। एक पुरोहित श्रेष्ठ पुरोहित बने, एक सैनिक व शासक श्रेष्ठ शासक बने, एक व्यवसायी श्रेष्ठ व्यवसायी बने तथा सेवाकर्म में लगे लोग अपने दायित्वों का सही ढंग से निर्वाह करें।पंच महाभूत यज्ञ : मनुष्य कृतज्ञता के भाव में जिए। वैदिक संस्कृति का एक महान आधार है पंच महाभूत यज्ञ है। पहला, गृहस्थ को प्रतिदिन वैदिक ग्रंथों का स्वाध्याय, सत्संग, ईश्वर की स्तुति, संध्या-वंदन तथा धर्म ग्रंथों का पठन-पाठन एवं प्रचार करना चाहिए जिसे ब्रह्मयज्ञ कहा है। दूसरा, पितृयज्ञ अर्थात माता-पिता व पितरों की सेवा तथा तर्पण। मनुस्मृति में आता है कि माता, पिता व गुरु की सेवा स्वर्ग प्राप्ति का द्वार है (2.233)। तीसरा, देव यज्ञ जिसमें जल, वायु, पर्यावरण संरक्षण (mother nature) संबंधी कर्म भी आते हैं। चौथा, भूत यज्ञ अर्थात संन्यासी, साधु, संत, वैदिक विद्धान, पुरोहित, वैद्य, धर्म रक्षा व कल्याण कार्य में लगे व्यक्ति, निर्धन, रुग्ण, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, दुर्बलांगता ग्रस्त, शारीरिक संकट ग्रस्त, अभाव ग्रस्त, विद्यार्थी आदि को दान भोजन देना व अन्य सहायता करना। पांचवां, अतिथि यज्ञ अर्थात अतिथि का आदर-सत्कार जिसमें लोगों को बुलाकर भोजन देना सम्मिलित है। वेद बताते हैं कि ये पंचकर्म जीवन को स्वर्ग बना देते है। इसके अतिरिक्त नित्य कर्म, दायित्व, पुरुषार्थ, तीर्थ यात्रा, सौलह संस्कारों का वहन, पर्व, त्यौहार व व्रतों का पालन करना जीवन के अंग हों।
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सतसंग, स्वाध्याय व तीर्थाटन : सतसंग व स्वाध्याय उन्नयन के स्रोत हैं। इसी प्रकार तीर्थयात्रा ईश्वर के प्रति गहरे समर्पण, मन की शुद्धि तथा चिंता मुक्त होने का अवसर होता है। तीर्थ यात्रा में यात्रा का प्रत्येक पल महत्वपूर्ण है, यह धर्म यात्रा है, जिसमें यात्रा भी तीर्थ में पहुंचने व दर्शन के बराबर महत्व रखती है। हिन्दुओं को यथासंभव वर्ष में एक बार या साधनों के अनुसार कुछ वर्षों के अन्तराल में प्रसिद्ध मंदिर व तीर्थ स्थानों में अवश्य जाना चाहिए। तीर्थों में नदी संगम, जन्म स्थान, ऋषि-मुनियों की तपस्थलियां, पुरियॉ, धाम आदि आते हैं। इनमें सप्त क्षेत्र भी आते हैं। सात तीर्थों को सप्त क्षेत्र कहते हैं: कुरुक्षेत्र, प्रभास क्षेत्र, (त्रिवेणी संगम, सोमनाथ के पास), गया क्षेत्र, हरि क्षेत्र (पटना के पास गंगा, सरयू), सोन, (गंडकी का संगम), भृगु क्षेत्र (भरूच), पुरुषोत्तम क्षेत्र (जगन्नाथ) तथा नैमिष क्षेत्र। विदेशों में भी अनेक मंदिर स्थल हैं जहाँ स्थानीय लोग दर्शन करें। ज्ञातव्य है कि भारतीय कथानक में काशी का विशेष स्थान है क्योंकि यह शिव द्वारा स्थापित है। काशी को अविमुक्त क्षेत्र कहते हैं अर्थात इसे भगवान कभी नहीं छोड़ते। प्रथम बौद्ध धर्म चक्र प्रवर्तन काशी में हुआ इसी प्रकार चार जैन तीर्थकर काशी में उत्पन्न हुए। काशी ज्ञान क्षेत्र है। ज्ञातव्य है कि अयोघ्या विश्व की राजधानी व पावन नगरी है।
नारी जाति की मुकुट मणि
श्री दुर्गा सप्तशती (Shri Durga-Saptashati) : दुर्गा-सप्तशती को दुर्गा-पाठ तथा देवी महात्म्य या चण्डी-पाठ के नाम से भी संबोधित किया जाता है। दुर्गा सप्तशती महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित मार्कण्डेय पुराण का अंश है। दुर्गासप्तशती का पाठ स्वयं में एक संपूर्ण पूजा है और इसका अपार महत्व है। दुर्गा शतनाम स्तोत्रम् तथा दुर्गासप्तशती का पाठ बहुत फलदायी है। इसका महत्व वेदों के समान है। प्रजा के कल्याण हेतु किये जाने वाले ‘चंडी यज्ञ’ का कर्म भी देवी महात्म्य के अनुसार किया जाता है। यह दुर्गति का नाश करने वाली तथा दुर्गा को अपने अन्दर अर्थात स्वयं में जाग्रत करने वाली उपासना है- देवी पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥ चंडी पाठ वस्तुतः कर्म, भक्ति व ज्ञान की त्रिवेणी है जो पुरुषार्थ प्रदान करती है। यह अधर्मियों, पापियों, आतताईयों व हत्यारों का संहार करके एक आदर्श, न्यायप्रिय, शांति प्रिय, प्रेम व करुणा वाले समाज की स्थापना का ग्रंथ है। श्री दुर्गासप्तशती महिला जाति की ऐसी मुकुट मणि (crown jewel of Women) है जो विश्व में अद्वितीय व अलौकिक है। इसमें बताया गया है कि परम सत्ता स्त्री तत्व में है। यह ऐसा ग्रंथ है जिसे प्रत्येक व्यक्ति सदैव अपने पास रखे। दुर्गा सप्तशती कभी विषाद् (depression), निराशा, उदासी, अदृढ़ता, अशक्तता, अस्थिरता व दुर्बलता को पास नहीं आने देगी। हम पाते हैं कि झांसी की रानी, अहिल्याबाई जैसी अनेक महिलाओं हेतु भी श्री दुर्गा प्ररेणा की स्त्रोत रही हैं। चंडी पाठ श्रद्धालुओं को बल, बुद्धि व विद्या-तीनों प्रदान करता है। दुर्गा सप्तशती में अच्छाई व बुरायी के बीच युद्ध का वर्णन है, जहां भगवती मां अच्छाई का नेतृत्व करती है। सप्तशती में भगवती का निरुपण सगुण (with from) एवं निर्गुण दोनों रूपों में हुआ है। देवी की तीन प्रमुख अभिव्यक्तियां (त्रिदेवी) हैं : महाकाली जो उनका रौद्र रूप है, महालक्ष्मी जो ऐश्वर्यदाता है तथा महासरस्वती जो माधुर्य, सौंदर्य, विद्या और एक निर्मल स्वरूप है । ये शक्ति के तीन रूप हैः भुजबल, धन-सम्पदा तथा ज्ञान और यह शक्ति की पूजा का एक पहलू भी है। ये सभी स्वरूप नवरात्रि में देवी के नौ रूपों में दिखते है। स्वरूप का तात्पर्य पक्ष (aspects) से है और सप्तमातृका भी ऐसे ही पक्ष हैं। दुर्गासप्तशती में आया है कि वे तत्समुत्पत्तिर्बहुदा अर्थात एक होने पर भी अनेक रूपों में प्रकट होती हैं (1.63)।
दुर्गा सप्तशती के तेरह अध्यायों के अन्दर सात सौ श्लोक हैं और यह ग्रंथ उतना ही पवित्र है जितनी कि भगवद गीता है। यह शक्ति की उपासना का श्रेष्ठतम ग्रंथ है। इन अध्यायों में तीन चरित्र आते हैं। प्रथम चरित्र (महाकाली) में केवल पहला अध्याय आता है; मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) में दूसरा, तीसरा और चौथा अध्याय आते हैं तथा उत्तर चरित्र (महासरस्वती) में शेष सभी पांच से तेरह तक के नौ अध्याय आते हैं। इन तीनों चरित्रों के बीज अक्षर क्रमशः एं (महाकाली), ह्री (महालक्ष्मी), क्लीं (महासरस्वती) हैं। इन 13 अध्यायों के अतिरिक्त पाठ के पूर्व तथा अन्त में कुछ भाग जुड़ा है जिसे अंग कहते हैं। पूर्वांग अर्थात अध्याय एक से पूर्व सप्तश्लोकी, दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम, देवी कवच, अर्गला स्तोत्र, कीलक, वेदोक्त रात्रिसूक्त, तंत्रोक्त रात्रिसूक्त, श्री देव्यथर्वशीर्ष, नवार्णविधि तथा सप्तशती न्यास आते हैं और उत्तरार्ध अर्थात 13वें अध्याय के उपरान्त वेदोक्त देवी सूक्त, तंत्रोक्त देवी सूक्त, (वैदिक या तांत्रिक पूजा के अनुसार सूक्त बदल जाएगा), प्राधानिक रहस्य, वैकृतिक रहस्य, मूर्ति रहस्य, क्षमा प्रार्थना, श्री दुर्गा मानस पूजा, कुंजिका स्तोत्र और आरती आदि आते हैं।
संपूर्ण पाठ न कर पाने वाले उपासक देवी कवच, अर्गलास्तोत्र, कीलकम का पाठ करके देवी सूक्तम पढ़ सकते हैं। पहले कवच रूपी बीज का, फिर अर्गला रूपी शक्ति का तथा अन्त में कीलक रूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिए। नवरात्रि आदि अवसरों में श्री अथर्वशीर्ष (देवी उपनिषद) का पारायण भी किया जाता है। उपरोक्त विधि से पाठ सम्भव न हो तो केवल सप्तश्लोकी का पाठ करें जिसे स्वयं देवी ने चंडी पाठ का एक संक्षिप्त विकल्प बताया है। सप्तश्लोकी, जिसे ‘अम्बा स्तुति’ भी कहते हैं, में सात सौ श्लोकों वाली सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती का भावार्थ आ जाता है। ऋषियों ने सम्पूर्ण सप्तशती में से केवल सात श्लोक निकालकर सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र की रचना की। दुर्गा सप्तशती के अर्गला स्तोत्र में योग्य जीवनसाथी प्राप्ति हेतु मंत्र आया हैं यह मंत्र है ‘पत्नी मनोरमां देहि! मनो वृत्तानु सारिणीम तारिणीम दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम।’ कुंवारी कन्याएं इसकी जगह यह मंत्र पढ़ें ‘कात्यायनी महामाये महायोगिन्य धीश्वरि! नंद गोप सुतं देवी पतिं में कुरुते नमः’ ग्रंथ बताते हैं कि भगवती से प्रार्थना हेतु भगवती के शरणांगत हो जाएं। देवी कई जन्मों के पापों का संहार कर उद्धार करती है और भक्त को तार देती है। वही जननी है और वही सृष्टि की आदि, अंत और मध्य है।
अलौकिक स्तुतियां : सप्तशती में देवी को भगवान की शक्ति के रूप में नहीं अपितु उन्हें सभी शक्तियों के स्रोत व आदिशक्ति ब्रह्म के रूप में पूजा गया है। सप्तशती सुबोध, मनोहारी, सरल, लययुक्त तथा काव्यात्मक दृष्टि से अनुपम है। दुर्गा सप्तशती की एक विशेष बात यह है कि इसमें देवी मां की कुछ अलौकिक स्तुतियां आई हैं जो स्वयं देवताओं ने गायी हैं जोे इस प्रकार हैं: 1. नारायणि स्तुति (देवी प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद), 2. तंत्रोक्त रात्रि सूक्त (त्वं स्वाहा, त्वं स्वधा), 3. शक्रादय स्तुति (शक्रादयः सुरगणा), 4. देवी सूक्त (अहं रुद्रेभिर्वसु), 5. तंत्रोक्त देवी सूक्त (नमो देव्यै महादेव्ये, या देवी सर्वभूतेषु), 6. कुंजिका स्तोत्र (शृणु देवी प्रवक्षामि)।
धर्म स्थापना व मनोरथ सिद्धि : सामाजिक जीवन में कई मनुष्यों में राक्षसी प्रवृति आती रहती है और वे अन्यायी हो जाते हैं। यहां यह सन्देश भी है कि सुव्यवस्था अर्थात धर्म स्थापना हेतु ऐसी राक्षसी प्रवृत्ति वालों का विनाश करना पड़ेगा। ज्ञातव्य है कि चंडी चरित में गुरु गोबिन्द सिंह ने इसे शुभ कर्म कहा- देहि शिवा बर मोहे इहे शुभकर्मन ते कबहूं न टरु। उन्होंने चंडी को अत्याचारियों के विरुद्ध लड़ने वाली विवेक बुद्धि कहा है। यहां कहा है कि दुष्ट शक्तियों के विनाश हेतु सज्जन लोगों को सम्मिलित (‘सर्वदेवशरीरम्’) होकर लड़ना पड़ेगा। वैसे ही जैसे कि राक्षसों के विनाश हेतु मां दुर्गा ने शिव का त्रिशूल धारण किया, भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र, ब्रह्मा का वेद, कुवेर का धन, चन्द्रमा का धर्म लिया। इसलिए उन्होंने कहा ‘अहम् राष्ट्री’ (मैं राष्ट्र हूं), अहम् ब्रह्म स्वरूपा (मैं ब्रह्म स्वरूपा हूं)। इस प्रकार श्री दुर्गासप्तशती के पाठ से भक्तों को माता के आशीर्वाद का कवच प्राप्त होता है जो उन्हें अमंगल से बचाकर उनका कल्याण करता है। मनोरथ सिद्धि के लिए भी यह पाठ किया जाता है, क्योंकि यह कर्म, भक्ति एवं ज्ञान की त्रिवेणी है।
देवी की नित्य स्तुति में उसे सर्व सौभाग्य दायिनी मानकर उससे विद्यावन्तं, यशस्वन्तं, लक्ष्मीवन्तं जनं कुरू की कामना होती है। अर्गला स्तोत्र अति प्रभावशाली स्तोत्र है। इस स्तुति में देवी के सभी स्वरूपों को ध्यान में रखकर पाठ होता है। अर्गलास्तोत्र के पाठ से चार प्रकार के लाभ एक साथ होते हैं: रूप, सफलता, यश तथा सारी नकारात्मकता का नाश।
पाठ की विधि : आदर्श पद्धति यह है कि सम्पूर्ण पाठ का पारायण एकाशन होकर एक बार ही करना चाहिए तथापि सम्पूर्ण पाठ न कर सकने पर देवी कवच, अर्गलास्तोत्र, कीलकम का पाठ करके कुछ अध्याय तथा ‘देवी सूक्तम्’ पाठ कर सकते हैं। पाठ के पारायण की दो विधियां हैं। एक संक्षिप्त अर्थात त्रिअंग पारायण जहां कवच, अर्गला व कीलक का पारायण होता है जबकि नवांग पारायण में न्यास, आवाहन, नामानि, अर्गला, कीलक, हृदयम्, धलम, ध्यानम, कवचम आते हैं। कवच का पारायण महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें नव दुर्गा का वर्णन भी आता है। अथवा प्रतिदिन एक या अधिक अध्याय का पाठ किया जा सकता है। एक विधि यह भी है कि कवच, 108 नाम, उसके पश्चात पहले दिन प्रथम अध्याय; दूसरे दिन दूसरा और तीसरा अध्याय; तीसरे दिन चौथा अध्याय, चौथे दिन अध्याय पांच, छह, सात, आठ अर्थात चार अध्याय, पांचवें दिन अध्याय नौ और दस; छठे दिन ग्यारहवां अध्याय और सातवें दिन अंतिम दो अर्थात बारहवां व तेरहवां अध्याय। आठवे दिन हवन तथा नौवें दिन पूर्णाहुति करके विसर्जन होगा। दुर्गा पाठ के उपरान्त दस वर्ष तक की नौ कन्याओं का पूजन करने का विधान भी है तथा किसी बड़े कार्यक्रम में अनुष्ठान भी किया जाता है। संपूर्ण दुर्गा पाठ प्रायः पुरोहितों द्वारा कराया जाता है। पुरोहित जन पाठ का आरंभ गणेश पूजा, वरणी, अर्घस्थापन, सूर्य पूजा, दिगपूजन व शुद्धिमंत्र से करते हैं। लेकिंन संस्कृत में पाठ न हो सके तो अपनी भाषा में करें। (गीता प्रेस ने दुर्गा सप्तशती की हिंदी में एक पुस्तक निकाली है जो सरल व सहज है)।
मंदिर के दर्शन के समय क्या बोलें
भगवान के किसी स्वरूप के सम्मुख उसी स्वरूप का स्मरण व नमन उत्तम है लेकिन चूंकि देवता अन्योन्य परक होते हैं अर्थात एक-दूसरे के स्थान में प्रस्तुत हो जाते हैं अतः जो स्तुति या मंत्र स्मरण हो उसी को जप सकते हैं।
(1) श्री गणेश के विग्रह के सम्मुख
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय। लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय।।
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय। गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते।।
(2) श्री दुर्गा मंदिर में विग्रह के सामने
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणि नमोस्तु ते।
या देवी सर्वभूतेषु, मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनमः।।
(3) श्री शिव मंदिर में विग्रह के सामने
कर्पूर गौरम करुणावतारं, संसार सारं भुजगेन्द्र हारं। सदा वसंतं हृदयार विन्दे, भवं भवानी सहितं नमामि।
(4) श्री विष्णु मंदिर में विग्रह के सामने
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं। प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशान्तये।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं। विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिध्र्यान गम्यम्। वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।
(5) श्री कृष्ण मंदिर में विग्रह के सामने
कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम। नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम।
सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि। गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी।।
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव।
(6) श्रीराम मंदिर में विग्रह के सामने
लोकाभिरामं रणरंग धीरं, राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम। कारुण्यरूपं करुणाकरं तं, श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये।
(7) श्रीसरस्वती के विग्रह के सामने
या कुन्देन्दु तुषार हार धवला या शुभ्र वस्त्रवृता। या वींणा वरदण्ड मण्डितकरा या श्वेत पद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शङ्कर प्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। सा माम पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्याऽपहा।
(8) श्री हनुमान में विग्रह के सामने
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम। दनुजवन कृषानुम् ज्ञानिनां अग्रगण्यम।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम। रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।
मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं। वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये।
मंदिरों व तीर्थों की महिमा
मंदिरों व तीर्थों की महिमा : मन्दिर धर्मोदय, ज्ञानोदय तथा उपासना के केन्द्र तथा प्रेरक पुंज हैं । मन्दिर भक्ति का माध्यम है तथा आस्था, शिक्षा, सभ्यता, सुख, शान्ति, शरणांगति व सद्मार्ग के केन्द्र हैं । ये ईश्वर के प्रति व्यक्ति की कृतज्ञता के परिचायक हैं (परमाचार्य) ।
ईश्वर कण–कण में है जिसे कबीर ने यह कहकर समझाया है–कस्तूरी कण्डलि वसै, मृग ढूंढ़े बनमाहि, ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहि । परन्तु प्रत्येक कण में उसे पकड़ने की मानवीय सीमाओं के चलते हम उसे एक स्थान पर आवाह्न करके, स्थापित करते हैं, जिसे मंदिर कहते हैं । स्वामी विवेकानन्द से किसी ने प्रश्न किया कि जब भगवान सर्वत्र है तो हम मन्दिर क्यों बनाते हैं ? जिसका उत्तर उन्होंने यह कहकर दिया कि वायु तो सर्वत्र है लेकिन हम कमरे में पंखा चलाकर वायु का अनुभव कर पाते हैं वैसे ही मंदिर व ईश्वर का अनुभव है । शास्त्र कहते हैं कि जहां गोपुरम् दिखे वहीं कैलाश है । इसी प्रकार कहा है कि– गोपुरा दर्शनम् कोटि पुण्यम् अर्थात मंदिर के शिखर का दर्शन करोड़ों पुण्य देता है । मन्दिरों में जो वास्तुकला विकसित हुई और अभी भी हो रही है, वह मन्दिरों को सौन्दर्य का केन्द्र भी बनाती है । प्राचीन भारत की वास्तुकला, जिसके साक्ष्य वैदिक वांग्मय से भी मिलते हैं, विश्व में अतुल्य हैं । तीर्थ के बारे में कहा है–तारयतुं समर्थ: इति तीर्थ: अर्थात तीर्थ वह स्थान है जहां से व्यक्ति भवसागर पार करने की सामर्थ्य प्राप्त करता है । भविष्य पुराण (122–7–8) में आया है कि श्रद्धा रहित, पापी, नास्तिक, संशयी, लालच से यात्रा करने वालों को तीर्थयात्रा का फल नहीं मिलता । इसी प्रकार स्कन्द पुराण में आया है कि जिसके हाथ–पांव व मन सुसंयत हैं तथा निर्विकार हैं उसकी तीर्थयात्रा सफल होती है । यात्राओं में चारधाम यात्रा प्रमुख मानी गई है । मंदिर, मूर्ति, भगवान का चित्र मनुष्य को सद्मार्ग का स्मरण कराते हैं । मंदिर में चढ़ावा देना सामर्थ्यवान हेतु आवश्यक है अन्य जनों के लिए श्रद्धा सुमन व शरणांगति ही पर्याप्त है । भगवान कुछ लेते नहीं अपितु उसे कई गुना बढ़ाकर वापस दे देते हैं जैसे अभिषेक का जल वर्षा के रूप में सूर्य देव वापस करते हैं ।
तीर्थों की बड़ी महत्ता है और इन स्थलों की सुरक्षा, संरक्षण एवं मंदिरों के नवीनीकरण, विस्तारीकरण व निर्माण में सहयोग को बहुत पुण्य कार्य माना गया है । मंदिर एक रंगमंच भी है जहां नटमंदिर स्थित होते हैं । वस्तुत: जीवन के अनेक रंग, ललित कलाएं, नृत्य, छप्पन भोग, राग–रागनियां, योग, व्यायाम, स्थापत्य, शिल्प एवं ईश्वर की महिमा व स्तुति–मंडन हेतु मंदिरों में विशिष्ट स्थान निर्धारित होते हैं । मंदिर में प्रत्येक त्यौहार मनाया जाता है । मंदिर में भगवान की मूर्ति के साथ किसी संत, बाबा, गुरु की मूर्ति या चित्र न रखें । मंदिर में सभी आगन्तुकों को नित्य नि:शुल्क भोजन मिल सके और नित्य भंडारा तथा प्रसाद वितरण हो इसके लिए दान दें या ऐसी व्यवस्था करने हेतु आगे आए । मंदिर एक उत्सव तथा पुण्य कर्म का स्थल बने इसका प्रयास करें । मंदिर दया, करुणा, समता, अन्त्योदय, भूखे को भोजन, असहाय की सुधि लेने का स्थान भी है और ऐश्वर्य व आनन्द का प्रांगण भी । मंदिर हमारी निखिल संस्कृति के प्रतीक भी है और प्रतीक हमारी संस्कृति के नैरन्तर्य हेतु आवश्यक है ।
कर्णाटक संगीत की तरह भारत में अनेक नाट्य संगीत विधाएं जैसे ओडिसी, मणिपुरी, गरबा, भरत नाट्यम, कुचिपुड़ि, मोहनी अट्म आदि मंदिरों में पल्लवित हुई, इसीलिए ये भक्ति प्रधान हैं । हिन्दुस्तानी संगीत परम्परा भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से आती है जो सामवेद से निकली । शंकरदेव रचित ‘संगीत रत्नाकर’ नामक ग्रंथ में कर्णाटक व हिन्दुस्तानी दोनों परम्पराओं का वर्णन है । जयदेव रचित अनुपम कृति गीत गोविन्द तो भाव, राग व भक्ति से भरपूर काव्य है जो संगीत में निबद्ध हैं । सभी राग भगवान शिव से जुड़े हैं ।
ऐसी मान्यता है कि काशी विश्वनाथ धाम, द्वारिकाधीश, जगन्नाथपुरी, सिद्धि विनायक, पण्डरपुर, तिरुपति, कामाख्या देवी, श्रीनाथ जी, अमरनाथ, कामाक्षी, दक्षिणेश्वर, सोमनाथ, देवघर, महाकालेश्वर, गुरुवयूर (दक्षिण की द्वारिका), ओंकारेश्वर, मुम्बा देवी, चिन्नकेशवा, वृहदेश्वर, रामेश्वर, लक्ष्मी नारायण, महालक्ष्मी मंदिर वैल्लोर, गया, वैष्णो देवी, बद्री–केदार, पशुपतिनाथ, छतरपुर, सबरीमाला, मुरगन, श्रीकालहस्ति, मीनाक्षी मंदिर मदुरई, कपालीश्वर, पद्मनाभ, श्रीसेलम, कालीघाट, जैसे मंदिरों में भगवान जाग्रत अवस्था में विद्यमान हैं । विदेशों में भी अनेक जाग्रत मंदिर हैं । वस्तुत: जहां नित्य विधिवत पूजा आवाह्न हो वहां भगवान जाग्रत अवस्था में रहते हैं । इसी प्रकार अयोध्या, वृदावन, गया, गंगासागर, वाराणसी, हरिद्वार, नासिक, प्रयाग, रामेश्वर, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, जन्मभूमि अयोध्या व मथुरा, वृन्दावन, कैलाश मानसरोवर आदि पवित्र तीर्थ स्थान हैं । मंदिरों में विविध स्वरूपों की पूजा हेतु विशेष दिन भी निर्धारित है जैसे सोमवार श्री शिव को समर्पित है, मंगलवार श्री हनुमान को, बुध श्री गणेश को, वृहस्पति श्री विष्णु को, शुक्रवार श्री दुर्गा को और शनिवार श्री हनुमान जी, माता काली व शनि देव तथा रविवार श्री विष्णु (श्री राम, श्री कृष्ण) व सूर्य की विशेष पूजा हेतु है ।
तीर्थ यात्रा में सम्पूर्ण यात्रा के सभी पल महत्वपूर्ण हैं न कि केवल अन्तिम दर्शन । यह सम्पूर्ण प्रक्रिया मानसिक व शारीरिक शुद्धि व शक्ति प्रदान करती है । ज्ञातव्य है कि तीर्थों में काशी (बनारस) का विशेष स्थान है–काशी प्राप्त विमुच्यते नान्यथा तीर्थ कोटिभि: । चार पुरियों में काशी को अविमुक्त (जिसे ईश्वर ने कभी न छोड़ा) क्षेत्र कहा है यही मानकर गालिब ने काशी को दुनिया के दिल का पावन नुक्ता कहा है । दूसरी ओर कैलाश को धरती का केन्द्र माना गया है । अयो/या विश्व की राजधानी है और जो श्रीराम को प्रिय है– अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ । अयो/या से हमारे धर्म, संस्कृति, पर्व व भव्य मनोभाव के तार जुड़े हैं । हिन्दवी धर्मों के अनुसार कैलाश मानसरोवर ही सुमेरू पर्वत है तथा यह पृथ्वी की धुरी है । यहाँ श्रीकृष्ण, ऋशभदेव, बुद्ध व अर्जुन विचरण किए हैं । ज्ञातव्य है कि किसी मंदिर के सबसे ऊँचे शिखर का सुमेरू पर्वत का द्योतक माना जाता है जिसे स्वर्ग की सीढ़ी कहा है । गीता प्रेस का तीर्थाक एक उल्लेखनीय प्रकाशन है ।
ध्यान रहे कि तीर्थ व मंन्दिर करूणा व शान्ति के स्थल बनें, उन्हें सोने– चांदी से न लादें, जिससे कि भक्तों को उन्हें छूने से डर लगे । और वे सोमनाथ की तरह लुटेरों, शैतानों के लिए खजाना बनें । महत्वपूर्ण मन्दिर ही नहीं अपितु यहां आने वाले लोग भी हैं । मंन्दिर में आने वाले नहीं रहेंगे तो ये उजड़ जाएंगे । हिन्दू संस्कृति को मानने वाले ही नहीं रहेंगे तो ये ढहा दिए जायेंगे जैसे अतीत में हुआ । ज्ञातव्य हो कि मध्य युग में अनगिनत मन्दिर ढहाकर मस्जिद बना दिये गये थे । जब जनता मुसलमान हो जाएगी तो फिर मंदिर क्या काम । अफगानिस्तान व पाकिस्तान में भव्यतम हिन्दू, बौद्ध मंदिर थे तथा गुरूद्वारे थे जो आज, केवल 25 वर्ष में खंडहर हो गए, मिटा दिए गए ।
मंदिरों के द्वार सबके लिए खुले हैं लेकिन द्वार के अंदर वही लोग जाएं जिन्हें हमारे देवी–देवताओं पर श्रद्धा है । अनास्था वाला हिन्दू या गैर–हिन्दू वहां प्रवेश न करे । इस संसार का प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक एक काम अवश्य करे । वह काम है–रामचरित मानस तथा गीता का स्वाध्याय । जो मंदिर में जाकर हो तो उत्तम है । मंदिरों में जाएं तो घर की भांति स्वच्छता, श्रद्धालुओं की सेवा आदि भी करें । सिख जन गुरूद्वारों में जूते व बर्तन स्वच्छ करते हैं क्योंकि यह अहंकार का नाश भी करता है ।
भगवान व देवताओं के स्वरूप, अनेक अंग व वाहन
श्री विष्णु शेषनाग पर बैठे हैं, शिव के गले में सर्प है और भगवती दुर्गा शेर पर सवार हैं। ये प्रतीकात्म (symbolic) हैं। वस्तुतः यह जनसामान्य को वैदिक दर्शन को समझाने का प्रयास है। इन स्वरूपों को देखने से मनुष्य की दृष्टि खुलती है, यही महान दृष्टा ऋृषि मुनियों का प्रयास रहा है। ये स्वरूप गहन ज्ञान का निरूपण करते हैं। इन स्वरूपों से शास्त्रों में वर्णित दर्शन का निरूपण भी होता है। शेषनाग व विष्णु दो नहीं एक ही हैं। अच्छा व बुरा सब उसी के गर्भ में है। देवी-देवताओं के अनेकों हाथ, पैर आदि उनके अलौकिक सामर्थ्य तथा उनके दाता होने के द्योतक मात्र हैं-सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्रपात्। अर्थात जो हजारों सिर वाले, हजारों नेत्र वाले और हजारों चरण वाले विराट परमात्मा हैं, अर्थात अनन्त बुद्धि, अनन्त दृष्टि एवं अनन्त शक्ति वाले हैं। वे ऐसे हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रह जाते हैं, अर्थात अपरमित (limitless) हैं। जबकि मनुष्य के पास केवल दो हाथ, दो पांव, मात्र एक बुद्धि है और ये सब भी उसी परम तत्व की हैं। ब्रह्मा के चारों ओर मुख हैं क्योंकि वे रचनाकार हैं अर्थात उनकी दृष्टि सर्वत्र है। यह दृष्टि एकांगी नहीं सर्वतोन्मुखी है। इसी प्रकार पशु-पक्षी के रूप में देवी-देवताओं का निरुपण यह भी दिखाता है कि ईश्वर केवल मनुष्य के ही नहीं, बल्कि वे पशु-पक्षी सहित सम्पूर्ण सृष्टि के हैं। कहीं भगवती पूर्णतः सात्विक रूप में वैष्णव हैं तो कही मुंडों की माला पहने काली हैं। विविध स्वरूपों के वाहन भी उस रूप का ही विस्तार हैं जैसे शक्ति स्वरूपा श्रीदुर्गा की शक्ति का द्योतक सिंह है। देवी सरस्वती की सवारी श्वेत हंस है जो ज्ञान का द्योतक है और हंस मोतियों को चुगता है। मुद्रायें भी गूढ़ ज्ञान का भौतिक निरूपण करती हैं। अभय व वरद मुद्रायें सांसारिक भय से मुक्ति देने वाले एवं दाता स्वभाव का निरूपण करती हैं। श्री गणेश की दो शक्तियां है रिद्धि व सिद्धि, जिसे वे प्रदान करते हैं, जिन्हें उनकी दो पत्नियां कह दिया है और शुभ तथा लाभ उनके जो स्वरूप हैं, उन्हें उनके दो पुत्र कहते हैं। गणेश जी की पूजा चतुर्थी को होती है। गणेश जी का वाहन चूहा है। चूहा बहुत चंचल होता है जो मन का द्योतक है, जिस पर श्री गणेश नियंत्रण करते हैं। अर्थात जिसको आत्मज्ञान हो वह मन की चंचलता को नियंत्रित कर सकता है।
यमराज भयावह काले भैंस पर बैठकर आते हैं। श्री विष्णु का वाहन गरुड़ है जिसकी पूंछ बड़ी है तथा वह शक्ति, निर्लिप्तता व वैराग्य का प्रतीक है। सूर्य का वाहन वायु है, अर्थात वायु की सभी गतियां सूर्य पर निर्भर है और बिना वायु के सूर्य प्रज्वलित नहीं हो सकता। श्री हनुमान का वानर रूप भक्ति एवं क्षात्रबल का घोतक है तथा उनका पंचमुखी रूप एक योगी की पंचेन्द्रियों में विजय तथा पंचतत्व दर्शन का द्योतक है (कंबन रामायण)। हनुमान का स्मरण धनात्मक ऊर्जा (Positive Energy), अभय तथा आशा, प्रदान करता है। शिव विषमताओं में सामंजस्य है। श्री शिव के गले में सर्प है और कार्तिकेय का वाहन मोर है, शिव की सवारी नंदी है और पार्वती शेर की सवारी करती है और ये सब एक-दूसरे के वैरी होते हुए भी एक साथ रहते हैं। गले में सर्प यह दिखाता है कि उन्हें संहार भी करना पड़ता है। अर्ध चन्द्र समुद्र का द्योतक है। शिव के एक हाथ में डमरू है जो रचना का घोतक है तथा दूसरे हाथ में अग्नि है जो विनाश का घोतक है।
भगवान की किसी पूर्ण रूप मूर्ति में सनातन दर्शन के निम्नलिखित पांच तत्वों का निरूपण मिलता है ये वही कार्य हैं जिन्हें ईश्वर इस ब्रह्माण्ड में सतत कर रहा हैः 1. रचना 2. संरक्षण 3. संहार 4. तिरोभाव (मोह माया) तथा 5. अनुग्रह (कृपा तथा मुक्ति)। ज्ञातव्य है कि सनातन दर्शन के अनुसार रचना व विध्वंस की प्रक्रिया निरंतर सुचारू है अर्थात यहॉ रैखिक विकास नहीं अपितु रचना व विनाश दोनों ही सतत हो रहे हैं। रचना को प्रायः कमल के फूल के रूप में, संहार को किसी अस्त्र और इसमें कुछ मुद्रओं का सहारा भी लिया गया है।
ज्ञातव्य है कि सभी स्वरूप वही काम करते हैं-नकारात्मकता का नाश तथा सकारात्मकता का उन्नयन। इसी प्रकार उनके हाथों में विराजमान प्रतीकों का महत्व भी है जैसे खड़ग बुराई व अज्ञान पर विजय का द्योतक है; शंख से ॐ की ध्वनि निकलती है, जो सनातन ध्वनि है। चक्र धर्म का प्रतीक है। त्रिशूल तीन गुणों तथा रचना, संरक्षा व संहार का द्योतक है। सनातन व बौद्ध धर्म में कमल का फूल ज्ञान, शुद्धता व निर्लिप्तता का घोतक है। कमल में कांटे नहीं होते, वह पानी में उगता है तथापि पानी कमल में नहीं चिपक पाता। वाद्य यंत्र लय व आनन्द के द्योतक हैं। ठीक इसी प्रकार पुराणों में आई अनेक कथायें भी प्रतीकात्मक हैं जो सामान्य जनों को उदाहरणों के माध्यम से झकझोरती हैं। ध्यान रहे कि सृष्टि के दर्शन को जब भगवान अपनी मानवीय रचना में व्यक्त करते हैं तो यह सामान्य जनों को भ्रमित भी कर देती है। गणेश जी के आवाह्न से कार्य प्रारंभ का उददेश्य है कि मनुष्य कुछ करने से पहले गणेश अर्थात कार्य के निर्विध्न समापन हेतु बुद्धि विवेक का प्रयोग करें। अन्य प्रतीक भी गूढ़ अर्थ लिए हैं। मूर्ति, शालीग्राम या लिंग, विग्रह माध्यम के रूप में चित्त वृत्ति शुद्ध व नियंत्रित भी करते हैं।
महान दार्शनिक Winternitz ने लिखा है कि विश्व के इतिहास को समझना है तो सर्वप्रथम भारतीय धर्म साहित्य को पढ़ो। उन्होंने आगे लिखा है कि वेदों का काल क्या था, इसे कोई नहीं बता पाएगा और मैक्समूलर का यह प्रयास तथ्यपरक नहीं है।
मंदिर से लौटते समय स्तुति करें
अनायासेन मरणं, विना दैन्येन जीवनम। देहान्ते तव सान्निध्यम, देहि मे परमेश्वर।
चरणामृत लेते हुए
अकाल मृत्यु हरणं, सर्व ब्याधि विनासनं,
विष्णु ( दुर्गा/शिव/कृष्ण/राम) पादोदकम पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते।।
(चरणामृत, गंगाजल, प्रसाद आदि का श्रद्धापूर्वक पान शारीरिक व्याधियों को भी दूर करता है)।
महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रम्
यह स्तुति भगवती पार्वती के दुर्गा अवतार में राक्षस महिषासुर के संहार को आधार मानकर की गई है। यह महान स्तुति आदि शंकराचार्य द्वारा रचित है। यह स्तुति श्री दुर्गा सप्तशती पर आधारित है तथा चंडी-पाठ के संदेश को व्यक्त करती है। शास्त्रों के अनुसार एक भयावह राक्षस महिषासुर के विरुद्ध दैवी ने संग्राम किया जो नौ दिनों तक चला और दसवें दिन देवी मां विजयी हुई। इसी उपलक्ष्य में नौ दिन की नवरात्रि व दसवें दिन विजया दशमी अर्थात शक्ति (strength) का उत्सव मनाया जाता है। नवरात्रि में लगातार इस स्तोत्र का गायन व पारायण होता है तथा सप्तशती की कथा सुनी जाती है। यह देवी के उस चंडी रूप का वर्णन करती है जो सभी प्रकार के आनन्द का स्रोत है। मां दुर्गा आदि शक्ति हैं अतः इसका पारायण मनुष्य को हर प्रकार के भय व दुःखों से मुक्त करता है तथा जय प्रदान करता है। इसके लिए व्यक्ति को चाहिए कि वह पूर्णतः शरणांगत हो जाए, पूर्ण श्रद्धावान रहे। इस स्तुति में मधुर लय है जो गायन हेतु सर्वदा उत्तम है। इस स्तुति में आए अलंकारों का एक अनुपम स्थान है। श्लोक संख्या ग्यारह व बारह तो अलौकिक हैं जिनमें पुनरावृत्ति वाले प्रत्येक शब्द का अर्थ भी अलग है। (उच्चारण हेतु यूट्यूब में Navadurga तथा Anandmurti Gurumaa के वीडियो देखें)।
अयि गिरिनन्दिनि नन्दित मेदिनि विश्व विनोदिनि नन्दिनुते,
गिरिवर विन्ध्य शिरोऽधि निवासिनि विष्णु विलासिनि जिष्णुनुते।
भगवति हे शिति कण्ठ कुटुम्बिनि भूरि कुटुम्बिनि भूरिकृते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥1॥
सुरवर वर्षिणि दुर्धर धर्षिणि दुर्मुख मर्षिणि हर्षरते,
त्रिभुवन पोषिणि शङ्कर तोषिणि किल्बिष मोषिणि घोषरते।
दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥2॥
अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वन प्रियवासिनि हासरते,
शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय शृङ्ग निजालय मध्यगते।
मधुमधुरे मधु कैटभ ग×िजनि कैटभ भ×िजनि रासरते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥3॥
अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते,
रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते।
निज भुज दण्ड निपातित खण्ड विपातित मुण्ड भटाधिपते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥4॥
अयि रणदुर्मद शत्रु वधोदित दुर्धर निर्जर शक्तिभृते,
चतुर विचार धुरीण महाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते।
दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानव दूत कृतान्त मते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥5॥
अयि शरणागत वैरि वधुवर वीर वराभय दायकरे,
त्रिभुवन मस्तक शुलविरोधि शिरोऽधि कृतामल शूलकरे।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनाद महोमुखरीकृत दिङ्मकरे,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥6॥
अयि निजहुङ्कृति मात्र निराकृत धूम्र विलोचन धूम्रशते,
समर विशोषित शोणित बीज समुद्भव शोणित बीजलते।
शिव शिव शुम्भ निशुम्भ महाहव तर्पित भूत पिशाच रते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥7॥
धनु रनुषङ्ग रण क्षण सङ्ग परिस्फुर दङ्ग नटत्कटके,
कनक पिशङ्ग पृषत्क निषङ्ग रसद्भट शृङ्ग हताबटुके।
कृत चतुरङ्ग बलक्षिति रङ्ग घटद् बहुरङ्ग रटद् बटुके,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥8॥
सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदा दिकताल कुतूहल गानरते।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥9॥
जय जय जप्य जयेजय शब्द परस्तुति तत्पर विश्वनुते
झणझण झिंझिमि झिङ्कृत नूपुर शिंजित मोहित भूतपते।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥10॥
अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहर कान्तियुते,
श्रित रजनी रजनी रजनी रजनी रजनी करवक्त्रावृते।
सुनयनवि भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥11॥
सहित महाहव मल्ल मतल्लिक मल्लित रल्लक मल्लरते,
विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक झिल्लिक भिल्लिक वर्गवृते।
शितकृत फुल्ल स मुल्लसि तारुण तल्लज पल्लव सल्ललिते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥12॥
अविरल गण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते
त्रिभुवनभूषण भूतकलानिधि रूप पयोनिधि राजसुते।
अयि सुदती जन लालस मानस मोहन मन्मथ राज सुते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥13॥
कमल दलामल कोमल कान्ति कलाकलितामल भाललते,
सकल विलास कला निलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले।
अलिकुल सङ्कुल कुवलय मण्डल मौलि मिलद्ब कुलालिकुले,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥14॥
कर मुरलीरव वीजित कूजित लज्जित कोकिल मंजुमते,
मिलित पुलिन्द मनोहर गुंजित रंजित शैल निकुंजगते।
निज गुणभूत महाशबरी गण सद्गुण सम्भृत केलितले,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥15॥
कटि तट पीत दुकूल विचित्र मयुखति रस्कृत चन्द्ररुचे,
प्रणत सुरासुर मौलि मणिस्फुर दंशुल सन्नख चन्द्ररुचे।
जितकन काचल मौलि मदोर्जित निर्भर कुंजर कुम्भकुचे,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥16॥
विजित सहस्र करैक सहस्र करैक सहस्र करैकनुते,
कृत सुर तारक सङ्गर तारक सङ्गर तारक सूनुसुते।
सुरथ समाधि समान समाधि समाधि समाधि सुजातरते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥17॥
पदकमलं करुणा निलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे,
अयि कमले कमला निलये कमला निलयः स कथं न भवेत्।
तव पदमेव परम्पद मित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥18॥
कन कल सत्कल सिन्धुजलैरनु र्षिचति तेगुण रङ्गभुवम्,
भजति स किं न शची कुचकुम्भ तटीपरि रम्भ सुखानुभवम्।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामर वाणि निवासि शिवम्,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥19॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दु मलं सकलं ननु कूलयते,
किमु पुरुहूत पुरीन्दु मुखी सुमुखी भिरसौ विमुखी क्रियते।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥20॥
अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे,
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानु मितासिरते।
यदुचितमत्रा भवत्युररी कुरुता दुरुतापम पाकुरुते,
जय जय हे महिषासुर मर्दिनि रम्यक पर्दिनि शैलसुते॥21॥
सत्संग, स्वाध्याय व सतचिंतन
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिअ तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग। हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलडे़ में रखा जाए तो भी वे सब मिलकर दूसरे पलड़े में रखें क्षण मात्र के सत्संग की बराबरी नहीं कर सकते। वेद कहता है-हे प्रभो! मुझमें सुकर्म करने की सामर्थ्य उत्पन्न करो (साम. 861)। सनातन धर्म में सत्संग व स्वाध्याय दो ऐसे शब्द हैं जो जीवन की दिशा (इस लोक व परलोक) व दशा (स्वास्थ्य, सुख, प्रसन्नता, आनन्द, शान्ति) निर्धारित करते हैं। मनुस्मृति में आया है कि मनुष्य स्वाध्याय व शुभ कर्म हेतु सदैव तत्पर रहे-स्वाध्याये नित्य युक्तः स्यादैवं च एव कर्मणा। स्वाध्याय में शास्त्र का अनुशीलन व जप प्रमुख हैं। ज्ञान व सीखने की जिज्ञासा मानव का स्वाभाविक गुण है, जो उसे नित जीवंत रखेगा, किंतु क्या कुछ सीखा जाए और क्या नहीं, यह महतवपूर्ण है। वेद कहता है-आ नो भद्राः कृतवो यन्तु विश्वतः अर्थात संपूर्ण विश्व के सुविचार हमारी ओर आए । ऐसा साहित्य जो संवेदनाओं को जाग्रत करे तथा सर्न्माग की ओर ले जाए, फिर वह जिस किसी ने भी लिखा हो। ज्ञान अनन्त है जिसके बारे में वेद कहता है-ॐ महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धियो विश्वा वि राजति ।। (ऋग्वेद 1.3.12) अर्थात ज्ञान की सच्ची जिज्ञासा होेते ही यह अनुभव होने लगता है कि अरे ! संसार में तो बहुत कुछ ज्ञातव्य है, एक से एक अद्भुत विद्या हैं, जिस विषय में देखो उसी विषय में ज्ञान पाने का इतना क्षेत्र है कि मनुष्य कई जन्मों में भी उससे पार नहीं पा सकता। तैतरीय उप. की शिक्षावली में आया है कि स्वाध्याय व प्रवचन के प्रति प्रमाद, अवहेलना, खिलवाड़ न हो-स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम।
सत्संग का तात्पर्य है ऐसे जनों की संगति करें जो सुमार्ग पर चल रहे हैं फिर चाहे वे गुरु, संत, महात्मा हों या बुद्धिजीवी, युग पुरूष, विशेषज्ञ, रचनाकार, कर्मयोगी, शासक-प्रशासक, अध्यापक, किसान, लेखक, श्रमजीवी, कलाकार या अन्य कोई। इसे संगति का प्रभाव कहते हैं। वस्तुतः विविध मनुष्यों से मिलना भी एक अमूल्य सौभाग्य है। यह संगति ही है जो व्यक्ति को सुमार्ग या कुमार्ग ले जाती है। सतसंग की टोली वैसी ही हो जैसे कहा है कि चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़, तुलसीदास चन्दन घिसें तिलक करें रघुवीर। सत विचार मनुष्य को संजोए रखते हैं। भय मनुष्य को तोड़ देता है, बंधन में डालता है और उसकी दृष्टि बाधित कर देता है। स्वाध्याय हेतु ग्रंथों के अतिरिक्त संतों व कर्मयोगियों की जीवनी व रचनायें पढ़ना भी सर्वथा उत्तम है। मानस में आया है कि-बिन सतसंग विवेक न होई। सतसंग का तात्पर्य यह भी है कि कुसंग से बचना क्योकि बुरा साथी, गुरू, सीनियर, मुखिया या सहयोगी आपके इसलोक व परलोक दोनों को बिगाडे़गा-हानि कुसंग सुसंगति लाहू। दुराचारी, नशेड़ी या अपराधी का संसर्ग अवश्य ही कुमार्ग की ओर ले जाएगा। तुलसीदास जी कहते हैं कि सज्जनों के संगति से दुराचारी भी अपने दुष्कर्मों का त्याग कर देते हैं।
विद्या वही है जो मुक्ति के मार्ग पर ले जाए-सा विद्या या विमुक्तये (यजु. 40.14)। यदि किसी मनुष्य का मन शान्त है, चित्त प्रशन्न है और हृदय हर्षित है तो निश्चित ही वह अच्छे कर्मों का फल है और पुनः सतकर्म करने का उत्तम समय है (स्वामी विवेकानन्द)। रामायण में आता है कि-राम कृपा के वोहि अधिकारी। जिनको सत्संगति अति प्यारी ।। शास्त्र कहते हैं कि अपने नियत कर्म के अतिरिक्त व्यक्ति के पास कुछ अन्य गुण हों यह भी आवश्यक हैं-येषा न विद्या न तपो न दान ।। ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। ते मृत्युरूपे भुविभार भूता। मनुष्य रूपेण मृगाः चरन्ति। अर्थात जिसके पास न विद्या है, न वे कर्मठ हैं, न दान करते हैं, न ज्ञान, न शीलवान, न गुणवान व न धार्मिक हैं वे इस पृथ्वी में भार स्वरूप हैं। ऐसे लोग मनुष्य रूप में विचरण करते हिरण जैसे हैं। शास्त्र कहते हैं कि काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम। व्यसनने च मूर्खानां निद्रया कलहेन वा। अर्थात बुद्धिमान व्यक्तियों का अवकाश समय काव्य शास्त्र (शब्द, रस, गीत, संगीत एवं कला) में व्यतीत होता है जबकि मूर्खों का दुर्व्यसन, नींद तथा कलह में नष्ट हो जाता है। ज्ञातव्य हो कि ये सभी स्वाध्याय व सत्संग से जुड़े हैं। भागवत में कथा सुनने व सत्संग को वर्षा की तरह स्वच्छ करने वाला बताया है (2.8.5-6)। भक्ति रसामृत सिंधु में आया है कि आशा से ओत प्रोत होकर भक्तिमय रहें। समय व्यर्थ न गवायें-क्षांतिर व्यर्थ कालत्व।।
आज के समाज में संत्संग का अर्थ भी व्यापक हो गया है जहाँ सोशल मिडिया, इंटरनेट, चैटिंग साइट आदि भी संगति का मायध्म बन गए हैं। अतः इनमें भी अच्छा-बुरा का भेद गहनता से होना चाहिए। पुस्तक, टीवी, इंटरनेट आदि की विषयवस्तु भी स्वाध्याय के माध्यम हैं जहां विवेकपूर्ण चयन महत्वपूर्ण होगा। आज मानवीय संगति ही नहीं अपितु परोक्ष संसार (virtual world) हावी होने लगा है। अतः व्यक्ति इंटरनेट में क्या देखता है, पढ़ता, खेलता है, किससे चैटिंग व मैत्री करता है यह उसके जीवन की दिशा व दशा बदल देगा। अतः मानसिक अनुशासन महत्वपूर्ण है। जब धर्म ग्रंथ पढ़ें तो उनमें श्रद्धा भाव अवश्य रहे। जो भी साहित्य पढ़ें वह प्रेरक हो तथा मानव में निहित संवेदनशीलता को उजागर करने में सक्षम हो और सन्मार्ग पर ले जाए फिर वह किसी भाषा में और जिसने भी लिखा हो। आप उनके बारे में पढ़ सकते हैं जो इस संसार में जन्म लिए और इसे उन्नत, बेहतर, समतामूलक, कल्याणकारी बनाने के लिए काम किये। जिन्होंने धरती को रमणीय, समाज को अधिक सुरक्षित, सेवामूलक बनाने हेतु श्रम एवं संघर्ष किया। ऐसे व्यक्तियों की जीवनी पढ़ें जिन्होंने प्रेरणा दी, आशा जगाई, जिन्होंने धर्म रक्षा हेतु बलिदान दिया, जो निर्बल का बल बने, निर्दोष को न्याय दिलाया, मुक्त किया। जिन्होंने जीव मात्र के कल्याण की बात कही।
किसी भाषण, आख्यान, सेमिनार के प्रारम्भ में ‘ॐ श्री गणेशाय नमः’ का आह्नान करें। गणेश का अर्थ सदबुद्धि का आह्वान करने से है तथा अन्त में ‘ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति’ का उदगार हो। ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृंत गमय। ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति। यह शान्ति मंत्र किसी भी आख्यान के प्रारम्भ या अन्त में बोला जाए। उर्गं वचः अपावधीः अर्थात कठोर भाषण मत करो (सामवेद 353)। हरि ॐ तत् सत्। (बार-बार इस मंत्र को दोहराएं। यह प्रेरक, सुख दायक तथा मोक्ष्य दायक है)।
धर्म ग्रंथ युगों-युगों से लोगों को सभ्य जीवन जीने की सामर्थ्य देते आए हैं। मनुष्य में निहित शक्ति का कारण आत्मा है और वैदिक साहित्य इसे उबारता है (capacity enhancement )। महाभारत को जय संहिता कहा गया है क्योंकि इसमें बुराई के ऊपर विजय, सत्य की जीत तथा भवसागर से उद्धार का ज्ञान मिलता है। यही कारण है कि भारत से परिचित अनेको यूरोपीय विध्वानों ने भी अपनी पुस्तकों में उपनिषद आदि को उद्धृत किया है। जैसे इलियट ने वेस्टलैंड में छान्दोग्य उपनिषद् का उद्धरण दिया है। इसी प्रकार टाल्सटाय आदि अनेक लेखक भारतीय दर्शन से प्रभावित थे।
प्राचीन मान्यता रही है कि स्वाध्याय हेतु रामायण व गीता से श्रेष्ठ अन्य कुछ नहीं है। विशेषतः रामायण व गीता की कुछेक चौपाइयों को हम नित्य पढ़ें। समयाभाव होने पर रामायण का उत्तरकांड तथा सुंदरकांड पढ़ें और महाभारत का अनुशासन पर्व एंव शांति पर्व पढ़ें, जो अनेक प्रकार की सीख से भरे हैं। ये ग्रंथ मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं। गीता प्रेस, अद्वैत आश्रम आदि प्रतिष्ठित प्रकाशनों की अनेक पुस्तकें संतों व त्यागियों ने लिखी हैं इसलिए सर्वदा श्रेष्ठ हैं। सनातन धर्म में महान पुरुषों की लंबी लड़ी है और उनके द्वारा अनेक ग्रंथ भी लिखे गए जो हमारे पास उपलब्ध है और यह ज्ञान गंगा सतत बह रही है। वैदिक दर्शन की व्याख्या श्रद्धालु व आस्तिक ही कर सकते हैं अतः वेदों का विवेचन कुदृष्टि वाले, नास्तिक, अधर्मी न करें और ऐसे लोगों की पुस्तकों को पढ़ना भी भटका देगा। ज्ञान-विज्ञान व्यक्ति के नेत्र की भांति हैं-सर्वस्य लोचनम शास्त्रम। जहां शरीर में गत्यात्मक बल (diynamic readyness) (साहस, तेज, ध्रुव नीति व समर्पण है) तथा श्रीकृष्ण अर्थात उच्च आदर्श और सन्मार्ग है, वहीं विजय है, सम्पन्नता है, विकास है, वहीं सृजन है। इन दोनों का ही होना आवश्यक है (गीता 18.78)। यदि आप सम्पन्न, सफल, बलिष्ठ, ऊर्जावान और सतमार्ग में चल रहे हैं तो समझिए कि आप पर भगवान प्रशन्न हैं और कृपा कर रहे हैं तथा यह आपके पुरुषार्थ व कर्मों का फल है, किंतु सब कुछ ईश्वर को ही अर्पित होना चाहिए। हमारे शास्त्रों में वैज्ञानिक व आध्यात्मिक दोनों को ही ज्ञान माना है, क्योंकि दोनों ही प्रमाण ¼discerning process½ से निकलते हैं, दोनों एक ही हैं।
जीवन बहुत अमूल्य व सीमित है अतः भटकाव न रहे। स्वाध्याय के नाम पर दुविधा में डालने व भटकाने वाले भोगियों के शव्दजाल से सर्वदा बचें। इसी प्रकार धर्म ग्रंथों में से रत्न ढूंढ़ने का प्रयत्न हो न कि कमियां खोजने की। कुछ ग्रंथ में निहित कुछ ज्ञान काल क्रम से विकृत भी हुआ है जो स्वाभाविक हैं किंतु मर्म समझ में आ जाएगा। उदाहरणार्थ मनुस्मृति अवश्य पढ़ें पर आर्य समाज द्वारा प्रकाशित वेद सम्मत संस्करण को पढ़ें। इसी प्रकार गरुड पुराण अवश्य पढ़ें, पर हीरा बल्लभ जोशी द्वारा संकलित हिंदी व अंग्रेजी में उपलब्ध संस्करण को पढ़ें क्योंकि ये वेदोक्त और विशुद्ध हैं, इत्यादि। पढने के उपरान्त उस ज्ञान को बॉंटंे, ज्ञान को बॉंटने से व्यक्ति ऋषि ऋण से उऋण होता है। आप स्वॉध्याय अवश्य करें क्योंकि यह युगनिर्माण का माध्यम है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने लिखा है-‘वह संतान बड़ी भाग्यशाली है जिसके माता-पिता विद्वान व धार्मिक हो’ (सत्यार्थ प्रकाश)।
मानव योनि से श्रेष्ठ कुछ नहीं: मनुष्य योनि से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है, क्योंकि उसमें बुद्धि-विवेक है। मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है। व्यास जी ने इसके संबंध में कहा है-‘‘गुह्य व्रत्यां तदिदिं ब्रवीमि, नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हिं किंचित।’’ अर्थात मैं बड़े भेद की बात तुम्हें बताता हूं, वह यह है कि मनुष्य से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। वेद कहता है कि इन मनुष्यों में भी सभी प्रकार के कार्य करने वाला मनुष्य देवों के सदृश महान है (सामवेद 1026) क्योंकि देवता बहु-आयामी (multi dimentional) हैं। क्योंकि उसमें बुद्धि है जिससे वह सन्मार्ग में चल सकता है। मानव जीवन तभी श्रेष्ठ है जब यह धर्म व आध्यात्म परक है अन्यथा जीवन दिशाहीन है, पशुवत है। देवता आलसी से नहीं कर्मशील से प्रेम करते हैं। (सामवेद 721)।
इसी प्रकार मानव योनि एक वरदान और अनुपम सौभाग्य है। इसी योनि में भक्ति, कर्म, (सृजन, सेवा) व ज्ञान संभव है। हमें अद्भुत शरीर मिला है जिसकी प्रत्येक इन्द्री आनंद व उल्लास से भरी-पूरी है, ऐसा मन जो हर्षोल्लास का लाभ ले सकता है। ऐसी बुद्धि जो सुख-सुविधा के साधन विनिर्मित कर सकती है, अनोखा वातावरण मिला है। अतः इस सृष्टि की उन्नति हेतु योगदान दें और पिछड़े जीवों की सुविधा के लिए काम करें जिससे कि संसार में सर्वत्र स्वर्णीय वातावरण बन सके (अखंड ज्योति)।
मानव योनि में आपके जन्म से यह सिद्ध होता है कि आप सौभाग्यशाली हैं चूँकि यही एक योनि है जो कर्म व मोक्ष का मार्ग है। मानव रूप में यह जन्म आपके पुण्य कर्मो से ही संभव हुआ है। इसमें भी सनातन धर्म में जन्म लेने पर आप अनन्त सौभाग्यशाली हैं क्योंकि आप मानवता के प्राचीनतम एवं महानतम दर्शन के उत्तराधिकारी हैं, जिस धर्म में आपको अपने आराध्य को चुनने की स्वतंत्रता है, क्योंकि कोई भी स्वाधीनता आराधना की स्वाधीनता से बड़ी नहीं होती। यह स्वर्ग व मोक्ष मार्ग भी है। स्मरण रहे कि मानव होकर भी उसमें नर-पशु बन जाने या उच्च स्थिति के देव मानव हो जाने, दोनों की ही संभावनाएं निहित है। यहां ज्ञान की बड़ी महत्ता बताई गई है और आदि शंकराचार्य ने बताया है कि ज्ञान ही अन्याय को मिटा सकता है। इसी प्रकार कहा है कि अज्ञान ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है (चाणक्य)।
अन्तःकरण व व्यक्ति का कल्याण: अन्तःकरण के अन्तर्गत चार तरंगें अर्थात अवयव-मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार-आते हैं। इन्हें प्रायः दो भागों में बांटा जाता है। जहां मन में चित्त समाविष्ट हो जाता है तथा बुद्धि में अहंकार। मन के द्वारा संकल्प व विकल्प होता है अर्थात ऐसा करूं या ऐसा न करूं, मन से ऊपर बुद्धि है। चित्त के द्वारा स्मरण तथा अहंकार के द्वारा गर्व होता है (ज.गु. निश्चलानन्द स)। गीता में आया है कि मन व बुद्धि दोनों ही ईश्वर में लगें (12.8) और कर्म होता रहे, तो यह कल्याण करेगा (गीता 7.14)।
वेद, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, गीता, रामायण, भागवत
शास्त्र बताते हैं कि वेद का उद्भव मानव कल्याण हेतु हुआ और ग्रंथों में आए अनेक संवाद व प्रश्न जीव कल्याण उददेश्य से पूछे गए हैं । ऋषि पूछे गए प्रश्नों का उत्तर जानते हैं किन्तु वे अनुग्रह कर रहे हैं । किन्तु वैदिक गं्रथों, भागवत को समझने हेतु दैवीय मन स्थिति चाहिए । गीता, रामायण आदि सागर की भांति हैं जिसे जितना चाहिए निकाल ले । गीता का एक नाम पतिव्रता है अर्थात ईश्वर में मन रमाने वाली । द्वापर से पूर्व श्री कृष्ण ने यही गीता सूर्य को सुनाई थी । ज्ञातव्य है कि महाभारत का उददेश्य दिव्य सनातन संस्कृति का विस्तार भी था । तुलसीदास जी ने वैदिक दर्शन से न भटकने का संदेश दिया है: जो कोई दूषहि श्रुति करि तर्का । परहि ते कोटि कल्प भरि नर्का । वैदिक ज्ञान इस संसार की अनमोल धरोहर है । वेदों के दर्शन को मनोमय अर्थात एक सात्विक मन जो सोचता हो वैसे ही सोचने वाला बताया गया है । ग्रंथों के अन्तर्गत वैदिक वाग्मय में चार वेद तथा उनसे निकले वेदांग, उपनिषद, उपवेद, संहिता, अरण्यक, शाखा, ब्राह्मण ग्रंथ आदि आते हैं । इन्हें श्रुति या आगम ग्रंथ कहते हैं । वेद मूल ग्रंथ हैं और परवर्ती ग्रंथों में वेदों का विनियोग हुआ है । और इस श्रेणी के ग्रंथ स्मृति या निगम कहलाते हैं, जो श्रुति से निकले हैं । जिसमें रामायण, महाभारत, 18 पुराण व स्मृतियां भी आती हैं । जहां श्रुति स्थाई हैं वहीं स्मृति सतत उन्नयनशील पहलू हैं । वेदों का ज्ञान ऋषियों को समाधि की अवस्था में ईश्वर से प्राप्त हुआ था । वेदों को श्रुति कहा जाता है अर्थात जिसे ऋषियों ने ईश्वर से सुना । स्मृतियों में उपासना के विविध मार्ग दिये गए हैं ।
धर्म ग्रंथों का पारायण, प्रचार–प्रसार बड़ा पुण्य कर्म माना गया है । रामायण, महाभारत, भागवत आदि का पारायण जब भी हो कोई व्यक्ति इसका भावार्थ भी अवश्य बतायें । ज्ञातव्य है कि जहाँ बाल्मीकि रामायण वस्तुत: श्री सीता अर्थात रामा का चरित है वहीं तुलसीकृत मानस श्री राम चरित है । इन ग्रंथों के सार के रूप में वैदिक नियम प्रतिपादित हुए हैं जिन्हें कथाओं के माध्यम से स्मृति ग्रंथों में वर्णित किया गया हैं, जिससे कि ये सुग्राह्य हो जाएं । रामायण, महाभारत, देवीभागवत, शिव पुराण आदि वृहद कथाएं ही हैं । वेदों में ब्रह्म, ईश्वर, आत्मा, तत्व ज्ञान, धर्म, प्रार्थनायें, स्तुतियॉ, हवन, देवता, ब्रह्माण्ड, खगोल, विज्ञान, भूगोल, युद्ध कला, इतिहास, संस्कार, रीति, संगीत, चिकित्सा, औषधि, रसायन, गणित, ज्योतिष आदि सभी विषयों से जुड़ा ज्ञान मिलता है । तथापि वेदों के दो प्रमुख प्रतिपाद्य है : 1– अथातो धर्म जिज्ञासा (आओ अब हम धर्म की जिज्ञासा करें) तथा 2– अथातो ब्रहम जिज्ञासा (आओ हम परम सत्य रूपी ब्रहम की जिज्ञासा करें) है ।
उपनिषदों में वेदों के तत्व दर्शन का सार या निचोड़ है जो सनातन आध्यात्मिक दर्शन का स्त्रोत इनमें ईश्वर, आत्मा, ब्रह्माण्ड, जगत, मोक्ष, जैसे गूढ़ विषयों पर प्रकाश डाला है । ( गीता प्रैस का उपनिषद अंक पढ़ें) । वेद व उपनिषदों को पढ़कर 6 ऋषियों ने अपना जो दर्शन गढ़ा उसे षड्दर्शन कहते हैं । ये छह दर्शन वेदों से निकले तथा ये ईश्वर को जानने के मार्ग हैं । महाभारत के 18 अध्यायों में से एक भीष्म पर्व का अंग गीता है । गीता में भी 18 अध्याय हैं जिनके अन्तर्गत 700 श्लोक (श्री कृष्ण के 574, अर्जुन के 85, संजय के 40 और धृतराष्ट्र का एक ) आए हैं । गीता सभी ग्रंथों का सार तथा सर्वमान्य, सार्वभौमिक ग्रंथ है । वेद व उपनिषद भारतीय धर्म संस्कृति के प्राण हैं । वेद ही इस विश्व में उपलब्ध सम्पूर्ण र्धम, ज्ञान, काव्य, विज्ञान आदि का मूल हैं –वेदो अखिलो धर्म मूलम । वेद खेत में सभी प्रकार के बीज बोने जैसा है– वेदो अखिलो ज्ञान मूलम् । ब्राह्मण गं्रथों में वेद की गद्य में व्याख्या हैं । वेदों से अनगिनत धारायें और विचार रश्मियॉ निकलती हैं । वेदों के मंत्र सूत्र रूप में हैं और गहन अर्थ रखते हैं । कहीं–कहीं शब्दों के अर्थ सन्दर्भनुसार बदल भी जाते हैं जैसे इन्द्र, गौ आदि शब्द आत्मा व इन्द्रियों के लिए भी प्रयुक्त हुए हैं । गौ का अर्थ गाय भी है तथा वेदों से प्राप्त होन वाला प्रभु भी है–गोविन्द । वेद व्याकरण की दृष्टि से भी त्रुटिहीन हैं । वेद संपूर्ण विश्व की निधि हैं, ये लोक और परलोक में जन कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करते हैं । वेदों पर अनेक भाष्य उपलब्ध हैं । जिनमें से एक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा लिखित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ है तथा दूसरी पुस्तक करपात्री महाराज द्वारा रचित ‘वेदार्थ परिजात’ है । दयानन्द सरस्वती (सत्यार्थ प्रकाशन), स्वामी विवेकानन्द तथा महर्षि अरविन्दों (लाइफ डिवाइन) ने वेदों पर जो समझ प्राप्त की वह बहुत विलक्षण मानी जाती है । वेद ग्रंथ पूजा पाठ तक सीमित नहीं हैं अपितु इसमें अनेकों धाराओं के बीज निहित हैं । इसलिए कहा है–वेदो अखिलो ज्ञान मूलम् । इसमें से अनेकों धाराओं को ऋषियों ने परिपूर्णता प्रदान की । जैसे आध्यात्म के क्षेत्र में वैदिक ज्ञान की शिराएं उपनिषद् हैं, सौंदर्य के क्षेत्र में भरतमुनि का नाट्यशास्त्र है, योग के क्षेत्र में पतंजलि का योग सूत्र है, दाम्पत्य के क्षेत्र में रति, श्रृंगार व वात्सल्य का कामशास्त्र, अर्थ के क्षेत्र में कौटिल्य का अर्थशास्त्र, कर्म के क्षेत्र में रामायण व महाभारत, भक्ति के क्षेत्र में 18 पुराण, विज्ञान के क्षेत्र में गणित, खगोल पर महर्षि आर्यभटट् आदि के सूर्य सिद्धांत आदि । इन सभी को वेद आधारित होने के कारण पंचम वेद कहा गया है । इन सभी में वेदों के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के लक्ष्य को आधार माना गया है तथा पूरे ब्रह्मांड को ब्रह्म मय माना है कि सर्वत्र वही प्रेरक शक्ति यकतपअपदह वितबमद्ध विद्यमान है । वैदिक दृष्टि में सृष्टि की सभी धाराएं, कलाएं, ज्ञान–विज्ञान आदि आपस में जुड़े हैं । नास्तिकों की रचना भी इससे बाहर नहीं है । ब्रह्म सूत्र में एक जगह आया है कि जीवन के रहस्य को केवल वैदिक दर्शन ही समझा पाता है जिसमें पूर्ण संगति और नित नयापन मिलती है । वेदों में जीवन की सभी धाराओं का सूत्र रूप में विवरण है । इसमें अनेक सूत्र तो इतने गूढ़ हैं कि ये मानवीय कल्पनाओं को चकित कर देते हैं । इसी प्रकार श्रीराम शर्मा एक ऐसे महामनीषि थे जिन्होंने वेदों का अनुवाद किया और व्यक्ति को उठाने का बीड़ा उठाया । उनमें निर्धन व असहाय के प्रति अपार करूणा थी । वे आधुनिक युग के वैदिक ऋषि थे ।
आज हम कलिकाल के प्रारंभ में प्रवेश कर गए हैं और कलिकाल में कथाओं के वाचन व श्रवण को वैदिक काल में यज्ञो के समान पुण्यकारी माना गया है (भागवत 12–3–52) । वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ हैं जिनमें ऋग्वेद विश्व का पहला लिखित ग्रंथ है । दूसरा यजुर्वेद, तीसरा सामवेद और चैथा अथर्ववेद है । वेदों में मुख्यत: ज्ञान, कर्म, उपासना व विज्ञान पर प्रकाश डाला है । वेद काव्य व अलंकार की दृष्टि से भी अद्भुत हैं । इतना ही नहीं वेदों में मानक भी दिए हैं जैसे भोजन, स्नान आदि नित्यकर्म, उठना, बैठना, शयन, शिष्टाचार, व्यवहार, स्वच्छता, यज्ञ, कर्मकाण्ड, संस्कार आदि की विधि । ये विधियां व्यावहारिक रूप से भी अर्थपूर्ण हैं और ये वैदिक दर्शन के अनुरूप एवं उसे चरितार्थ करती हैं । वेद चार हैं किंतु इन सभी में एक ही मूलभूत दर्शन का विस्तार है जिसका परवर्ती काल में अनेक क्षेत्रों में पुन: विस्तार हुआ ।
वेद पवित्रतम ज्ञान के ग्रन्थ हैं । बाद के ग्रंथों में वेदों का विनियोग ॐ के रूप में होता आया है । ( गीता पै्रस का वेदांत पढें) । दुर्गासप्तसती में भी वेदों का विनियोग होता है । स्मरण रहे कि वेद व गीता ही नहीं अपितु अन्य ग्रंथों में भी देवत्व उत्पन्न करने के सभी बीज निहित हैं । ज्ञातव्य है कि वैदिक ऋषि ज्ञान को देते हुऐ यह कहना नहीं भूलते कि यह जो ज्ञान वे दे रहे हैं, वह उनका अपना नहीं अपितु वह पूर्ववर्ती ऋषियों, युगों, ब्रह्मा या स्वयं ईश्वर से आया है । भागवत गीता ज्ञान का वह सागर है जिसकी गहराई को जान पाना मानव सामर्थ्य से परे है तथापि अपनी सामर्थ्य से इसे समझना चाहिए । भागवत में आया है कि जैसे भंवरा पुष्प से मधु निकालता है वैसे ही गं्रथों से तत्व ज्ञान निकाले । जो समझ से बाहर हो उसे छोड़कर आगे बढ़ें । अनेक प्रकरण युग परंपरा जनित होने के कारण दुरूह हैं । ज्ञातव्य है कि हम वही देख पाते हैं जो हम हैं और हम वही हैं जो हम देख पाते हैं (गीता) । गीता ही नहीं रामचरित्र मानस की चैपाईयों में भी सागर जैसी गहराई है । अनेक ऋषियों को कालातीत होने की सिद्ध प्राप्त थी । अत: वे भूत व भविष्य में जाकर बोलते हैं । गीता व मानस में आई वाणी को सुनना ही नहीं आचरण में भी लाना चाहिए– करिष्ये वचनम तव (गीता 18–73)
वेदों में बीस हजार से भी अधिक मंत्र हैं जो अनेक प्रकार के दिव्य ज्ञान व संदेश लिए हैं । वेद बताते हैं कि बिना ज्ञान के इच्छा संभव नहीं है और बिना इच्छा के कर्म संभव नहीं है । जगत में जिन तत्वों का ज्ञान हमें इंद्रियों व विज्ञान से प्राप्त नहीं हो सकता उनका ज्ञान वेदादि शास्त्रों से हमें मिलता है या योगबल से निकले वैज्ञानिक ऋषिकल्प प्रज्ञा से प्राप्त होता है (जगतगुरु निश्चलानन्द) । सम्पूर्ण (परा–अपरा) ज्ञान वेदों से निकलता है ।
वेद ईश्वर की देन हैं जो संस्कृत भाषा में रचे हैं । संस्कृत भाषा ज्ञान की एक ऐसी गंगोत्री है जो मनुष्य को देवलोक के दर्शन करा सकती है । संस्कृत हमारी सॉफ्ट पावर है जो ज्ञान की खदान है । हिन्दुओं के लिए संस्कृत केवल भाषा ही नहीं अपितु संस्कृति–सभ्यता, अस्मिता व ज्ञान की त्रिवेणी है । संस्कृत इस धरती में ऐश्वर्य तथा परलोक में स्वर्ग व मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है, इसीलिए इसे देववाणी कहा है ।
वेदों से जो सर्वाधिक दिव्य ज्ञान निकला उसकी व्याख्या उपनिषदों में हुई है जिनकी संख्या लगभग 200 है यद्यपि मुख्य 14 उपनिषद् हैं । उपनिषद् छोटे ग्रंथ हैं जिनमें से एक मांडुक्य उपनिषद् तो केवल डेढ़ पृष्ट का है लेकिन इनमें गूढ़ सूत्र हैं जो सृष्टि, ब्रह्म, आत्मा, माया, अस्तित्व आदि पर प्रकाश डालते हैं । ज्ञानी लोग मानते हैं कि मांडुक्य के सूत्रों में परम तत्व निहित है । उपनिषदों का प्रमुख विषय यह जानना कि मैं कौन हूँ ? कहां से आया हूं, कहां जाऊंगा–कस्त्वं कोहं कुत आयात: । इसका उत्तर वेद देते हैं कि में ब्रह्म का अंश हूँ । सभी उपनिषदों में जिज्ञासु व आचार्य के बीच प्रश्नोत्तर के रूप में गूढ़ प्रश्नों का समाधान दिया है । यह ब्रहमाण्ड व सृष्टि क्या है ? मृत्यु क्या है ? आदि ऐसे अनेक प्रश्नों का रहस्य भी इन ग्रंथों में निहित है । वेद बीज है और उपनिषद् शिराएं हैं । वैदिक ज्ञान के प्रसार हेतु जिन स्मृति ग्रंथों की रचना हुई उनमें 18 पुराण आते हैं । उपासना के विविध मार्ग स्मृतियों में दिए हैं जिनमें भागवत पुराण, विष्णु पुराण व गरुड़ पुराण सात्विक वर्ग के पुराण हैं अत: विशेष महत्व रखते हैं । भागवत पुराण में गीता की भांति ही श्री कृष्ण के कुछ वचन भी निहित है । पुराणों की रचना वैदिक ज्ञान को जनसामान्य तक लोकप्रिय बनाने हेतु ऋषियों ने की है । पुराणों में प्राय: वैदिक ज्ञान को भारतीय संस्कृति के परिवेश में प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ है । इनमें कथाएं, इतिहास, मिथक के साथ गहन ध्यान अर्थात समाधि की अवस्था व दैवीय सिहरन की अवस्थाओं में ऋषियों द्वारा लिखे आख्यान भी आते हैं । कुछ पुराणों में कतिपय कपोल कल्पनाओं वाले संदर्भ भी बाद के काल में किन्हीं कारणों से प्रवेश कर गए जो पूर्णत: असंबद्ध प्रतीत होते हैं । इसी प्रकार कुछ संदर्भ ऐसे भी हैं जिनका अर्थ गूढ़ है और कहीं पर वे प्रतीकात्मक हैं । कुछ कथाएं विषय को रोचक और रसपूर्ण बनाने हेतु डाली गई हैं लेकिन कुछ कथाएं गूढ़ विषय को समझाने हेतु । उदाहरणार्थ दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं का चंद्रमा से विवाह की कथा वस्तुत: चंद्रमा व नक्षत्रें से संबंधित जटिल खगोल को समझा रही है । कुछ ऐसे भी विषय हैं जिनके बारे में शास्त्रों में निहित दृष्टि आज के जनमानस में प्रचलित धारणाओं से भिन्न है उदाहरणार्थ शास्त्रों में यौन क्रिया को प्रजनन हेतु किया गया धर्मजनित कर्म माना है न कि कामुकता । इसी प्रकार छह वेदांगों (विज्ञान ग्रंथों) की रचना भी ऋषियों ने की । स्मृतियों में अन्य अनेक प्रकार के ग्रंथ भी आते हैं । जिसमें दो इतिहास ग्रंथ अर्थात रामायण व महाभारत प्रमुख हैं जो मिथक नहीं अपितु सत्य घटनाओं पर आधारित हैं । तथापि हिन्दू धर्म में सत्य की परख हेतु ऐतिहासिकता पर बल नहीं दिया जाता क्योंकि सत्य तो इस ऐतिहासिकता से कहीं व्यापक और गूढ़ है ।
श्रीकृष्ण 126 वर्ष जिये किन्तु वृद्धावस्था वाले उस शरीर में ईश्वर तत्व नहीं था चूंकि बिना अपने मानव शरीर को त्यागे, अर्थात मृत्यु से पूर्व ही वे अपने धाम वैकुंठ लोक चले गए थे । श्री राम के लिए जो हनुमानजी हैं वैसे ही श्री कृष्ण के लिए उद्धव हैं । वैकुंठ लोक जाने से पूर्व जो उद्धव के प्रश्रों का शंका समाधान श्री कृष्ण ने किया उसे हंस या उद्धव गीता कहते हैं जो श्री कृष्ण का अंतिम प्रवचन है, जिसमें वे बताते है कि उन्होंने महाभारत की अनेक घटनाओं को इसलिए नही रोका कि ये घटनांए कर्म की गति से संचालित थीं, श्रीकृष्ण तो केवल साक्षी हैं । श्रीकृष्ण के वैकुण्ठ चले जाने के पश्चात भक्ति धारा का यह प्रेम रूपी ग्रंथ श्रीमद भागवत पुराण, उनकी उपस्थिति व्यक्त करता है । भागवत का प्रथम श्लोक कहता है कि वे ‘सच्चिदानंद रूपाय विश्वोतपत्यादि हेतवे’ अर्थात वे सत् चित् आनंद स्वरूप हैं । शौनक आदि ऋषियों ने सूत जी से 7 गूढ़ प्रश्न किये जिनका उत्तर वे भागवत में दे रहे हैं । इस कथा को सर्वप्रथम व्यास पुत्र शुकदेव जी ने पाण्डुराजा परीक्षित को सुनाया था । सुकदेव जी ने यह कथा स्वयं भगवान शिव से सुनी थी, इसे अमर कथा (श्रीमद् भागवत) कहा है । भागवत में 12 स्कन्द अर्थात पुस्तकें, 335 अध्याय व 18 हजार श्लोक आते हैं । किन्तु दशम् स्कन्द भागवत का हृदय है और वाचकों की कथाओं में इसी का वाचन होता है अर्थात जिस सर्ग को सुकदेव जी ने सुनाया था । जिसमें रासपंचाध्यायी श्रीकृष्ण की लीलाओं पर एक अलौकिक वर्णन है । वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत, भ्रमरगीत आदि श्रीमद् भागवत की मणियां हैं । अन्य स्कन्धों में प्राय: ऋषि मुनियों, राजाओं आदि के बीच संवाद व विविध कथाओं के माध्यम से अनेक विषयों पर ज्ञान प्रसार का प्रयत्न हुआ है । भागवत को प्रकांड विद्वान से ही सुनें चूंकि श्रीमद् भागवत बहुत गूढ़ है, यह वेद सार है जिसमें द्वेत–अद्वेत दर्शन का समन्वय है, जिसका अर्क निकलना बड़ा दुरूह है । स्वयं भगवान ने जो चार श्लोक ब्रह्मा जी को सुनाए थे (चतुश्लोकी भागवत), जिसमें ब्रह्म, जगत और माया व आत्मा का वर्णन है । भागवत इन्हीं चार श्लोकों का विस्तार है । रामायण के नौ दिन चलने वाले ‘नवान परायण’ की भांति, ‘भागवत सप्ताह’ का शास्त्रीय विधान है । भागवत पर अनेक भाष्य भी लिखे हैं जिनमें श्रीधर स्वामी, वल्लभाचार्य, संत एकनाथ, सनातन तथा जीव गोस्वामी की टीकाएँ प्रसिद्ध हैं । भागवत सुनने–सुनाने का बड़ा पुण्य होता है जिसे भागवत के प्रारंभ में आये माहात्म्य में बताया है तथा सुनने व सुनाने के नियम भी बताए हैं । भक्ति, प्रेम व लीलाओं के माध्यम से वैदिक ज्ञान को रसपूर्ण बनाकर प्रभावी बनाने हेतु वेद व्यास वे भागवत रचा । ग्रंथों का निरूपण भी प्राय: बड़े नाटकीय, दिव्य व रहस्यमी ढंग से होता है । भागवत का प्रारंभ देवी पार्वती द्वारा श्री शिव से पूछे प्रश्न कि उनके गले में अनेक नारियों की मुखाकृति वाली माला का रहस्य क्या है, से होता है । जिसमें श्री शिव बताते हें कि वे सभी पार्वती जी के पूर्व जन्मों की मूर्तियां हैं । माता के प्रश्न कि केवल मेरा ही पुनर्जन्म क्यों होता है शिव का क्यों नहीं, इसपर शिव जी कहते हैं उन्होंने तो अमर कथा सुनी है इसलिए उनका देहांत नहीं होता । तब वे माता के आग्रह पर उन्हें यह कथा सुनाते हैं जिसे माता पार्वती के जगत कल्याण की कामना के चलते एक सूक (तोता) सुन लेता है जो अगले जन्म में व्यास पुत्र सुकदेव रूप में उत्पन्न होते हैं । ज्ञातव्य है कि यह भूमिका बड़ी सारगर्भित है ।
इस संदर्भ में भागवत गीता एक विशेष स्थान रखती है, क्योंकि इसमें इतिहास ग्रंथों (रामायण, महाभारत) का कर्म प्रधान मार्ग, उपनिषदों का ज्ञान प्रधान मार्ग तथा स्मृतियों व संतों के भक्ति मार्ग के साथ ही राजयोग आदि धाराएं एक जगह विलीन हो जाती हैं । इस ग्रंथ के पश्चात यह पूछना व्यर्थ हो जाता है कि कौन–सा मार्ग प्रमुख है । गीता एक अद्वितीय ग्रंथ है क्योंकि इसमें स्वयं ईश्वर बोल रहे हैं तथा इसे हिन्दू धर्म पर सार रूपी अंतिम आख्यान कहा जा सकता है । गीता में ईश्वरीय वाक्य हैं । एक उपनिषद् के रूप में श्रुति ग्रन्थ होते हुए भी भागवत होने के कारण गीता स्मृति ग्रन्थ की कोटि में आ जाती है, अर्थात इस ग्रन्थ के परे कुछ भी नहीं है । जीवन में गीता अवश्य पढ़ें और इसे सारे पूर्वाग्रह त्यागकर, श्रद्धापूर्वक पढें व सुने ॥ गीता मानव मात्र का ग्रंथ है । इसमें सभी जीवों के कल्याण की भावना निहित है ।