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रंगीली संस्कृति

देवीधुरा मेले में कुमाऊं की मोहक लोक संस्कृति से साक्षात्कार होता है। दूर-दराज से आए कुमाऊंनी लोक-गायक, नृतकियों के परिधान पहिने नृतक, कोई गले में हुडका वाद्य लटकाए है तो कोई मसकबीन बजाते हुए स्वच्छन्द विभिन्न टोलियों में यत्र-तत्र जमवाड़ा लगाते हैं। मेले में गाये जाने वाले प्रमुख लोक शैलियां झोड़ा, चांचरी, छपेली (नृत्य प्रधान), बैर (तर्क प्रधान) तथा भग्नौल एवं न्यौली (अनुभूति प्रधान) आदि हैं। मेलों में चूंकि हर्ष का वातावरण रहता है अतः श्रृंगार व व्यंग्य के गीतों की प्रधानता रहती है।

कुमाऊं की लोक संस्कृति रंगीली और अद्भुत है। लोक गीत, नृत्य, स्वांग, वाद्य, समूह गान आदि अनोखी झलक प्रदान करते हैं जो पर्वतीय परिवेश के अनुरूप भी है। नैसर्गिक कलाओं को व्यक्त करते ये आयाम जीवन को आनन्द से सराबोर कर देते हैं। देवीधुरा काली कुमाऊं के हृदय की भांति है जहां विशेषकर मेलों में संपूर्ण कुमाऊं के लोक जीवन की अभिव्यक्ति प्राप्त होती है। यद्यपि समय की मार के चलते अनेक विद्याएं लुप्त हो रही हैं, किन्तु लोक जीवन के ये पहलू यहां आज भी दृष्टिगोचर होते हैं।

झोड़ाः- कुमाऊं का अत्यधिक लोकप्रिय नृत्य गीत है। इसकी विषयवस्तु, प्रायः श्रृंगार व व्यग्य रहते हैं। सामान्यतः इसमें कुछ स्त्री व पुरुष अर्ध-वृत में बंट जाते हैं। इसमें समूह सिर झुकाते हुए हुड़के की थाप पर बांए पैर को आगे बढ़ाकर दांए पैर को दाहिनी ओर रखते हैं और फिर दाहिने पैर को पीछे से आगे बढ़ाकर शरीर को पीछे की और झुकाते तथा लहराते हुए प्रारम्भिक स्थिति प्राप्त कर लेते हैं। मुख्य गायक हाथ में हुड़का लेकर नृत्य करता हुआ गाता है जिसे पहला व दूसरा समूह दोहराता है। कभी-कभी बीच में नया विषय या हास्य लाकर इसे रोचक बनाया जाता है।

चांचरी: चांचरी मुख्यतः मेलों के समय मंदिरों में गाए जाने वाला सामूहिक नृत्य-गीत है, किन्तु विविध उत्सवों, त्योहारों और शुभ अवसरों में भी इनका गायन होता है। चांचरी की विषय वस्तु प्रायः धार्मिक तथा सामाजिक रहती है और इसमें देव स्तुति अधिक मिलती। यह नृत्य-ताल गीत है। इसमें गायक वृत्ताकार घेरे में हाथों को अलग-बगल खड़े गायकों की कमर व कंधों में या दोनों हाथ एक दूसरे की कमर में डालकर दो कदम आगे एक कदम पीछे करते हुए बढ़ते हैं। इसमें पहले आगे बढ़ते हुए नृतक अर्ध-वृत को सिमटाकर कम करते हैं और फिर पीछे की और हटते हुए उसे बढ़ाते हैं। मुख्य गायक वृत्त के बीच में हुड़का लिए रहता है जिसे चांचरिया कहते हैं। वृत्त का एक भाग मुख्य गायक की कहीं पंक्ति गाता है और दूसरा उसे दुहराता है। चांचरी में दो मुख्य गायक भी हो सकते हैं। चांचरी की मूल पंक्तियों में गायक अपनी कल्पना अनुसार ‘जोड़’ लगाते जाते हैं। जो अनेक विषयों को छूते हैं।

झोड़ा-चांचरी में भेद:- झोड़ा व चांचरी दोनों ही नृत्य-गान शैली हैं। तथापि इन विधाओं में पर्याप्त अन्तर है। झोड़े की तुलना में चांचरी मन्द गति वाली होती है। चांचरी पारिवारिक संस्कारों व धार्मिक अवसरों में अधिक गाई जाती है। इसमें वाद्य तंत्र हुडका आवश्यक नहीं है। झोड़ा में द्रुत पग संचालन तथा धुनें व लय तीव्र रहता है। इसमें हुड़का आवश्यक है, विषयवस्तु नारी व श्रंृगार केंद्रित होती है। झोड़े सामान्यतः रात को मेले में गाये जाते हैं। 

छपेली: छपेली तीव्र गति वाली नृत्य-गान शैली है। छपेली में केवल दो जन प्रायः प्रेमी-प्रेमिका के रूप में रहते हैं। जिसमें एक गायक जो प्रायः हुड़का वादक भी होता है और एक नृतकी होती है जो पहले महिला हुआ करती थी लेकिन आजकल स्त्री के वेश में पुरूष रहते हैं। इनकी टोलियों में मसकबीन, बांसुरी, मंजीरा और हुड़का बजाने वाले भी चलते हैं, जो समस्त मेला क्षेत्र में घूमते रहते हैं। यह नृत्य प्रधान विधा है जिसमें गीत नृत्य को दृष्टिगत रखकर गाया जाता है। नृतकी अपने हाथों में रूमाल व दर्पण लिए रंग बिरंगे कपड़ों में सोलह शंृगार किए हुए चंचल व मोहक भाव-भंगिमायें प्रस्तुत करती है जिसमें नृतक एक हाथ कपाल पर तथा दूसरा हाथ कमर में रखकर शरीर को आगे झुकाते हुए गोल घुमाता है, जो बेहद आकर्षक, कमनीय व झंकारमय रहता है। छपेली में एक या दो पंक्तियां ध्रुव पद के रूप में स्थाई होती है, जिसे मण्डली तथा दर्शक मिलकर गाते हैं और इसमें नृत्य तालबद्ध चलता रहता है। मुख्य गायक जोड़ को अन्तरा के रूप में ध्रुव के बाद अकेला गाता है, जिस दौरान ताल नहीं बजता और नृतक विश्राम करते हैं। एक अन्तराल के बाद तालबद्ध स्थाई की आवृत्ति से गीत में अद्भुत लय उत्पन्न होता है। यह प्रेम व शृंगार रस वाली लोकप्रिय शैली है जिसमें नारी व प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन भी होता है। जहां झोड़ा व चांचरी में जोड़ भी लयबद्ध होते हैं, वहीं छपेली में मुख्य गायक प्रायः पद्य की तरह जोड़ लगाता है तथा अन्य लोग उसकी अन्तिम पंक्ति तथा ध्रुव को लय में नाचते हुए दो हराते हैं। 

न्यौली: न्यौली ऋतु गीत गायन पद्धति है, जिसमें शंृगार की प्रधानता रहती है तथापि इसमें संयोग-वियोग, भाग्यवादिता, तथा दार्श निकता की भावनाओं की अभिव्यक्ति भी मिलती है। न्यौली में स्त्री, पुरूष एवं मानव व प्रकृति के बीच संबंधों का वर्ण न मिलता है। वस्तुतः न्यौली एक कुमाउंनी पक्षी का नाम है जिसकी सुन्दरता व चहक मन को छू लेती। न्यौली एकल गायन है जिसे एकांत वनों में  काम करती महिलाएं गाती हैं।

बैर: किसी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा अपने ज्ञान व कल्पना शक्ति से मौके में सवाल दागने तथा अन्य व्यक्ति द्वारा हाजिर-जबाब देने की शैली को बैर कहते हैं। इसमें प्रश्न-उत्तर पद्य के माध्यम से मधुर लय में प्रस्तुत होता है। बैर का शाब्दिक अर्थ द्वन्द्व है। इसके गायक बैरिया कहलाते हैं। प्रायः दो-तीन बैरिये एक दल बनाते हैं और एक स्थान पर एकत्रित होकर गायन शैली में प्रश्नोत्तर करते हैं। ये छन्दात्मक वार्तायें धार्मिक ग्रन्थों को उद्धृत करके अपनी बात को तर्क संगत बनाती हैं। बैरे का प्रारम्भ तथा अन्त मंगल कामना से होता है। बैर में किसी वाद्य का प्रयोग नहीं होता और न ही नृत्य होता है। बैर में टेक पद नहीं होता केवल सुर (हा हा हा हा) लगता है। बैरिया अपने से पहले वाले बैरिये के प्रश्न का उत्तर देता है और साथ ही साथ अपना प्रश्न भी उसमें दाग देता है। यह प्रक्रिया पूरी रात या दो-तीन दिन तक अनवरत चल सकती है। श्रोता भी दूर-दूर से इन्हें सुनने आते हैं तथा बैरियों के ऊपर तमाम पैसा, न्यौछावर करते हैं। बैरिये खड़े होकर गाते हैं और फिर श्रोताओं के साथ अपनी-अगली पारी तक बैठ जाते हैं। इस प्रकार तीन-चार बैरिये आपस में भिड़ जाते हैं। प्रश्न का उत्तर न दे पाने वाले बैरिये की पराजय मानी जाती है। इनके प्रश्न प्रायः गंभीर विषयों को मुहावरों से संजोकर तर्क पूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते हैं, जिसमें इतिहास, धार्मिक व सामाजिक प्रश्नों का ज्ञान तथा कल्पना-शक्ति का होना अनिवार्य है। बैर के जरिए समाज में उपजी व्याधियों एवं कुप्रथाओं पर व्यंग्य करके उन्हें दूर करने की प्रेरणा भी दी जाती है। बैर एक सभ्य और अत्यन्त मर्यादित गायन शैली है और बैरिये समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं।

भग्नौल: मुख्य गायक की अन्तिम पंक्ति में आने पर सहायक गायकों द्वारा सुर लगाने के कारण इसे भग्नौल कहते हैं। भग्नौल में मुख्यतः समाचार, हाल-चाल, लोकोक्तियां, कटाक्ष, हास्य व्यंग्य परक उक्तियां रहती हैं। इसमें लयात्मक चरणों के बीच गद्य का प्रयोग होता है तथा तुकबन्दी रहती है किन्तु कोई ध्रुव पंक्ति नही रहती। इसमें कोई वाद्य या नृत्य भी नहीं होता। लय की दृष्टि से भग्नौल और बैर में काफी समानता रहती है।

मेले के अन्य रंगः- सांस्कृतिक क्रियाकलाप के अतिरिक्त देवीधुरा का मेला आर्थिक लेन-देन के लिए भी प्रसिद्ध हैं। यहां कुमाऊंनी शिल्पकारों के हुनर का प्रदर्शन भी होता है। स्थानीय कौशल वाले लोहे, तांबे, कांसे आदि के बर्तन, पहाड़ी वाद्य-यंत्र जैसे हुडका, ढोल, बिडाई, काठ के बर्तन जैसे घी रखने वाली हड़पियों से लेकर छांछ बनाने के डौकुवे तक इस मेले में मिलते है। गर्म ऊनी कपडे़, थुल्मा, कम्बल, कालीनें, जम्बू, गदरानी, सुहागा जैसी जड़ी-बूटियां धारचूला व मुन्स्यारी के ‘सौक’ लोग लाते हैं। मेले के दौरान स्थानीय लोग अपने नाते रिश्तेदारों से मिलकर अपने सुख-दुःख की बातें करते हैं और कुशलक्षेम पूछते हैं।

नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः, नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत कर्ताये नमो नमः,

नमोऽस्तुते जगन्मात्रे कारणायै नमो नमः, प्रसीद जगतां मातः वाराहा्रै ते नमो नमः।

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