( पंजी. यूके 065014202100596 )
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः, नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत कर्ताये नमो नमः,
नमोऽस्तुते जगन्मात्रे कारणायै नमो नमः, प्रसीद जगतां मातः वाराह्यै ते नमो नमः ।
आषाढ़ी कौतिक (मेला)
रक्षा बन्धन के दिन देवीधुरा में सदियों से एक विशाल मेले की परम्परा चली आई है। यह मेला ‘‘आषाढ़ी कौतिक’’ कहलाता है। श्रावण (अगस्त) एकादशी को सांगी (ताम्र मंजूसा या डोला) पूजन के साथ मेला प्रारंभ होता है जो जन्माष्टमी तक चलता है। अठवार, बग्वाल, जमान अर्थात रक्षाबन्धन के एक दिन पहले व एक दिन बाद, ये तीन मुख्य मेला दिवस रहते हैं।
अष्टबलि या अठवार
अठवार का शाब्दिक अर्थ अष्टबलि या आठ बलियों से है, जो काली के गण कलुवा वेताल को दी जाती है। कलुवा वेताल स्थल मुख्य मंदिर के पश्चिम में घण्टाघर के पास स्थित है। यहां की आराध्य देवी वाराही को बलि नहीं चढ़ती। अष्ठबलि को बीराचार पूजन भी कहा जाता है। वर्ष 2015-16 तक अष्ठबलि में एक नर भैंसा, छह बकरे और एक नारियल की बलि दी जाती थी। वर्तमान में नर भैंसे की बलि प्रतिबंधित है किन्तु भैंसे के स्थान पर काले बकरे की बलि आज भी दी जाती है। यद्यपि वीराचार (बलि) तिथि के अनुरूप वर्षभर चढ़ती है परन्तु रक्षाबन्धन के पहले दिन ये अधिक संख्या में दी जाती हैं, इसलिए स्थानीय भाषा में यह अठवार का दिन भी कहलाता है। साल के माघ महीने, प्रत्येक एकादशी, पूर्णमाशी, सूर्य और चन्द्र ग्रहण तथा बग्वाल, जमानी एवं दे-च्वेख्योन को बलिदान वर्जित है। रक्षा बंधन से एक दिन पहले अठवार देना आवश्यक होता है। यदि किसी कारण से कोई अठवार नहीं आती है तो चार खामों के द्वारा अठवार देकर परंपरा का निर्वहन किया जातंा है। अठवार के दिन इन पशुओं से मंदिर की परिक्रमा कराई जाती है और लोग ढोल-नगाड़ों के साथ देवी-देवताओं की जय-जयकार करते हुए बलि स्थल तक पहुंचते हैं। मां के दरवार में नारियत से बलि देने का विधान भी है। यद्यपि नारियल का बलिदान भी अष्टबलि के समान ही भक्तों के लिए फलदायी माना जाता है।
पाषाण युद्ध बग्वाल: रक्षाबन्धन की बग्वाल में परपरानुसार निर्धारित दो दलों के बीच विधान-पूर्वक होने वाले पत्थरों के युद्ध को बग्वाल कहते हैं। श्रावणी पूर्ण मासी को जब पूरे देश में भाई-बहिन के स्नेह के रूप में राखी का त्यौहार होता है तो देवीधुरा में यह त्योहार एक विशेष रूप में देखने को मिलता है। स्थानीय गांवों में रहने वाली चार प्रभु जातियों (चार खाम) व तीन थोकों के श्रद्धालु दो भागों में बंट जाते हैं। चार खाम के अन्तर्गत लमगड़िया और वालिक खाम अपने सहयोगियों के साथ मंदिर के सामने स्थित खोलीखांड़ मैदान के मंदिर छोर से तथा चम्याल व गहड़वाल खाम एवं सहयोगी पूर्वी सिरे से मोर्चा संभालते हैं। बग्वाल में भाग लेने वाले श्रद्धालु द्यौक अर्थात देवता के लोग कहलाते हैं।
प्रत्येक खाम का एक प्रधान होता है जो बग्वाल का सेनापति है। जहां बग्वाल के प्रारंभ में चम्याल व गढ़वाल खाम मचवाल की परिक्रमा करके आते हुए खोलीखांड़ मैदान व गुप्तेश्वरी की परिक्रमा करते हैं, वहीं वालिक व लमगड़िया खाम गुफा मंदिर गवौरी की और से आकर गुप्तेश्वरी तथा मैदान की परिक्रमा करते हैं। इनका मार्ग पूर्व निर्धारित होता है। परिक्रमा के समय बग्वाली गाजे-बाजे के साथ हाथ में डंडे लिए सिर में पगड़ी बांधे वीर रस से ओत-प्रोत होकर देवताओं की जय-जयकार करते हुए कूदते हुए किन्तु मर्यादित होकर चलते हैं जिनके ऊपर दर्शक अक्षत, पुष्प व भेंट चढ़ाते हैं। उल्लेखनीय है कि मंदिर में विभिन्न वर्गों की भूमिकायें नियत हैं। यहां तक कि वाद्य तंत्र बजाने का दायित्व भी वंशानुगत है।
बग्वालियों में कुछ श्रद्धालु पत्थरों से रक्षा हेतु बांस की बनी सपाट गोल ढाल लिए होते है, जिन्हें फर्रे कहते हैं। फर्रे वाले भी कतारबद्ध होकर मंदिर की परिक्रमा करते हैं और मुक्त द्यौके बीच में कूदते हुए साथ चलते हैं। बग्वाल में केवल पुरुष भाग लेते हैं। सभी के लिए इस दिन शुद्धता-पूर्वक व सात्विक रहना आवश्यक है। अतः स्थानीय जन प्रायः सुबह स्नान करके एक बार में परोसा भोजन करते हैं। तत्पश्चात् धुले या नवीन कपड़े पहनते हैं। बग्वाल एक धार्मिक यज्ञ है।
देवी का डोला अर्थात जमानी
रक्षा बन्धन के अगले दिन निकलने वाली शोभा यात्रा इस मेले का दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धार्मिक पर्व है। सामान्यतः स्थानीय श्रृद्धालु बग्वाल देखने के पश्चात रात्रि जागरण करते हैं। चूंकि बग्वाल के दिन गुप्तेश्वरी देवी विग्रह को मंदिर की दूसरी मंजिल से लाकर पास के डोलाघर में प्रतिष्ठापित किया जाता है, अतः रात्रि जागरण यहीं पर होता है। महिलायें सन्तान प्राप्ति हेतु हाथ में दिया लेकर जागरण भी करती हैं। जमानी की सुबह देवीं को विधान-पूर्वक बागड़ जाति के सूर्य वंशी राजा के वंशज तथा पुजारी अपनी आंखों में पट्टी बांधकर और ऊपर से काला कम्बल ओढ़कर दुग्ध स्नान कराते हैं और नए परिधान धारण कराने के पश्चात देवी की आरती उतारी जाती। तत्पश्चात् ताम्र पेटिका को संवारकर डोले अर्थात पालकी में प्रतिष्ठापित किया है। इस विशिष्ट पूजा का संचालन विद्वान पण्डित द्वारा किया है। इसके पश्चात देवी विग्रह की डोले में शोभायात्रा निकलती है जिसे जमांन उठना कहते हैं। पहले यह शोभायात्रा एक रथ में निकलती थी किन्तु अब रथ नहीं रहता।
यात्रा में जिस पुजारी की गोद में देवी की मूर्ति रहती है उसे श्रद्धालु कंधे में बिठाए रखते हैं तथा डोले को लाल व पीले रंग के कपड़े की छतरी अर्थात चंवर की छाया में रखा है। इस चंवर को गोलाकार घुमाते हुए देवी के मायके अर्थात मचवाल की ओर चार खाम व सात तोकों के सैकड़ों श्रद्धालु देवी की जय-जयकार करते हुए निकलते हैं। इस समूह में सबसे आगे हाथ में शंख तथा सिर में शकुन पिटारी नामक बक्सा लिए एक अन्य पुजारी चलता है जिसे शुभ एवं मंगलकारी माना है। इस पिटारी में देवी के आभूषण, श्रृंगार की सामग्री, चन्दन, रोली, धूप, वस्त्र आदि होते हैं। पुजारी के साथ पुरोहित रहता। इसके पीछे डोला रहता है, जिसके पीछे देवी को छाया देने वाला रक्षक तथा चंवर लिए भक्तगण चलते हैं। तत्पश्चात देवी का ताम्र छत्र चलता है, जो देवी के भक्त बाड़ी जाति के व्यक्ति के हाथ में रहता है। यह वही छत्र है जिसे ओढ़कर रक्षा बन्धन के दिन पुजारी बग्वाल रोकने हेतु मैदान में जाते हैं। यह छत्र डोले के संरक्षण में निकलता है। छत्र ले जा रहे कुछ श्रद्धालुओं के शरीर में दैवीय आवेश रहता है, जिसके चलते वे कांपते हुए दिखते हैं। कहते हैं कि जमान के साथ बावन बीर, चैसठि योगिनी, भैरव, कलुवा बेताल, ऐड़ी आदि देवगण चलते हैं। छत्र के साथ विविध भांति के वाद्य भी रहते हैं, जो वीररस पूर्ण ध्वनि बजाते हैं। राह में खड़े श्रद्धालु डोले व छत्र में फूल, भेंट, अक्षत आदि चढ़ाते हैं तथा हाथ जोड़कर नमन करते हैं। डोले को देखना बहुत शुभ माना है। मचवाल पहुंचने पर वहां शिव मंदिर की पांच बार परिक्रमा करके डोला वापस लौटता।
जमान के समय बहुधा रिमझिम वर्षा हुआ करती है। कहते हैं कि यह वर्षा नहीं अपितु देवी के आंसू हैं। क्योंकि मायका छोड़ते समय देवी भावुक हो उठती है। लगभग तीन घण्टे में देवी की शोभा यात्रा सम्पन्न हो जाती है (अर्थात लगभग एक बजे दो पहर शोभा यात्रा निकलती है और चार-पांच बजे मंदिर में वापिस आ जाती है)। देवी का डोला क्यों निकलता है इस बारे में कई किवदंतियां प्रचलित हैं। एक मान्यता रही है कि मचवाल में देवी का मायका है। अतः देवी वर्ष में एक बार यहां आती है।
चन्द्रायण ब्रत उद्यापन:- जमानी का अगला दिन दे-च्वेरव्योन कहलाता है अर्थात शुद्धीकरण। इस दिन वर्षा निश्चित ही होती रही है। भाद्र कृष्ण द्वितीया को पंचगव्य स्नान, चन्द्रायण व्रतो द्यापन के साथ मेला समाप्त हो जाता है। मंदिर की परम्परा के अनुसार यहां की दैनिक पूजा का दायित्व पास के दो गांव टकना और गुरना के पुजारियों का रहता है किन्तु वैदिक मंत्र पाठ के लिए आचार्य मनटान्डे व किमाड़ के पुरोहित होते हैं। सामान्य पूजा अन्य पुरोहित व पुजारी भी कर सकते हैं।