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मंदिर पूजा परिसर

गणेश मंदिर 

मुख्य मंदिर के दांई ओर धरातल पर एक छोटे से मंदिर में गणेश भगवान की प्राचीन मूर्ति स्थित है। पूजा का प्रारंभ यहीं से होता है।

सिंहासन की गुप्तेश्वरी

देवीधुरा की इस आराध्य देवी अर्थात वाराही की प्राचीन मूर्ति मुख्य मंदिर के दुमंजिले में रखे तांबे के सन्दूक अर्थात सिहांसन डोला में स्थित है जिसे सदैव गुप्त रखा जाता है अर्थात देवी के दर्शन का आदेश किसी को नहीं है। यह मूर्ति पूरे वर्ष में एक बार बाहर निकाली जाती है जिसे पुजारी पर्दे की ओट में रहकर आंखों पर पट्टी बांधकर पवित्र स्नान कराकर पूजा-अर्चना, नैवेद्य एवं परिधान अर्पित करने के पश्चात पुनः डोले में वापस स्थापित कर देता है। ऐसी मान्यता है कि मां वाराही में वज्र के सामान तेज है जिसे देखने मात्र से नेत्र ज्योति जा सकती है इसलिए देवी को वज्र वाराही भी कहा है। मंदिर की पहली मंजिल में सूकर मुख वाली मुर्ति स्थित है। इस मंदिर के ठीक पीछे देवी का गुफा मंदिर है।

काली मंदिर बिरखम

गुप्तेश्वरी के मंदिर के पीछे गवौरी मंदिर की और जाने पर सर्व प्रथम घण्टाघर आता है उसके आगे महाशिला के सहारे एक छोटा पत्थर का स्तम्भ मिलता है जिसमें काली का चित्र उकेरा गया है। यहीं पर मां काली की पूजा होती है।

देवकुल रक्षक भैरव:- काली मंदिर से गुफा मंदिर की ओर एक छोटा हवन कुण्ड तथा अष्ट भैरव मंदिर है। भैरव उत्तराखंड का लोकप्रिय ग्राम तथा कुलदेवता हैं। देश के कुछ भागों में भैरव को भगवान शिव का महाकाल रूप या उनका गण माना है। पास में एक रथ मंदिर और कुछ क्षतिग्रस्त मूर्तियां तथा हवनकुण्ड हैं।

गुह्येश्वरी

भैरव मंदिर के उपरान्त गवौरी का पूर्वाभिमुख प्रवेश द्वार आता है जो सकरी चट्टानी दरार से बना है। चार विशालकाय व कुछ छोटे ग्रेनाइट पत्थर शिलाओं के मिलने से निर्मित वाराही की यह अति प्राचीन प्राकृतिक गुफा असीम श्रद्धा का केन्द्र है। गुफा हेतु पश्चिम व दक्षिण से दो प्रवेश मार्ग हैं, जो गुफा द्वार के पास मिल जाते हैं। प्रवेश द्वार में पत्थर की बनी द्वारपाल की मूर्ति है जिसके सिर में पगड़ी तथा हाथ में विजोरा है। द्वारपाल की मूर्ति से 10 कदम आगे बढ़ने पर शक्तिपीठ की गवौरी अर्थात गर्भ गृह आता है जहां पर अनेक घण्टियां लटकी हैं। देवी के इस महा शक्ति स्थल गवौरी में लगभग दो फुट चैड़ी एक फुट ऊंची तथा तीन फुट लंबी पिंडी या शिला है अर्थात भू-वराह के रूप में देवी विराजमान हैं। स्थानीय जन सूखा या अकाल पड़ने पर गवौरी शक्ति स्थल के गहरे क्षेत्र में पानी भरते हैं। इस जलाभिषेक से संकट दूर हो जाता है-ऐसी मान्यता है। शक्ति स्थल पर विशाल शिलाओं के बीच बनी गुफा में बल्लभी शैली का छोटा दुमंजिला मंदिर बना है। यहां से आगे चलने पर गुफा और अधिक संकरी हो जाती है। गुफा के अन्त में द्वारपाल की नौलिंग रूपी मूर्तियां हैं और पास में भोग कुटिया भी है। इसमें पुजारी देवी मां के भोग हेतु भोजन तैयार करते हैं। तदुपरान्त नीचे उतरने की सीढ़ियां हैं।

अनन्तवेली स्थल एवं तेजोमय प्रसाद

गवौरी के दक्षिणी प्रवेश द्वार के पास अनन्तवेली का मंदिर है। जहां शिवरात्रि पर श्रद्धालु पूजा हेतु एकत्रित होते हैं तथा महिलाएं सन्तान प्राप्ति हेतु जागरण भी करती हैं। अनन्त वेली स्थल में स्थित विशालकाय शिला से एक तैलीय पदार्थ निकलता है जो तेजोमय प्रसाद कहलाता है। मान्यता रही है कि यह प्रसाद गुफा मंदिर गवौरी से यहां आता है। उपासक यहां पर दोनों हाथों से स्पर्श करके तेलीय पदार्थ को अपने माथे में लगाते हैं। लोक विश्वास है कि इस प्रसाद से व्यक्ति की बुद्धि प्रखर और उसका व्यक्तित्व विलक्षण बनता है। 3 गते माघ से 3 गते फाल्गुन तक मंदिर के कपाट बंद होते हैं तब बलि आदि नहीं दी जाती है। 3 गते माघ को सभी मंदिर स्थलों पर घी का लेप किया जाता है जिसका श्री गणेश मंदिर से प्रारंभ होकर मचवाल पर समाप्त होता है। आजकल कपाट सदैव खुले ही रहते हैं।

भीम शिला

गवौरी मंदिर के उपरान्त लगभग 100 गज दक्षिण में एक विशाल ग्रेनाइट शिलापुंज है जो रणशिला या भीमशिला कहलाती है। इनमें एक के ऊंपर एक पड़ी तीन अलग-अलग शिलाएं हैं जिसमें निचली दो शिलायें लगभग 22 गज लम्बी, 12 गज चैड़ी और 6 गज मोटी हैं। ऊपरी वृहद् शिला के बीच में एक लम्बी दरार है। तीसरी ऊपरी छोटी शिला में 5 अंगूठे के आकार के छेद बने हैं। लोक विश्वास है कि इस शिला को भीम ने यहां रखा है और ऊंगलियों के निशान भी भीम के ही हैं। रणशिला से पूर्व में स्थित पनार घाटी और हिमालय तथा दक्षिण में स्थित देवगुरू पर्वत श्रृंखला एवं अन्य पहाड़ियों का अलौकिक दृश्य मिलता है।

मचवाल का शिव मंदिर

देवी मंदिर के सामने आधे फर्लाग पर स्थित देवीधुरा की सर्वोच्च चोटी मचवाल कहलाती है जहां प्राचीन शिव मंदिर स्थित है। मचवाल चोटी के पूर्वी छोर पर एक अन्य प्रसिद्ध देवालय है जहां पर स्थानीय ऐड़ी देवता का मंच पटल है तथा कुछ लौह त्रिशूल व अस्त्र-शस्त्र रखे गए हैं। ऐड़ी की पूजा शनि देवता की भांति खुले में ही होती है।

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