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देवी का डोला अर्थात जमानी

रक्षा बन्धन के अगले दिन निकलने वाली शोभा यात्रा इस मेले का दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धार्मिक पर्व है। सामान्यतः स्थानीय श्रृद्धालु बग्वाल देखने के पश्चात रात्रि जागरण करते हैं। चूंकि बग्वाल के दिन गुप्तेश्वरी देवी विग्रह को मंदिर की दूसरी मंजिल से लाकर पास के डोलाघर में प्रतिष्ठापित किया जाता है, अतः रात्रि जागरण यहीं पर होता है। महिलायें सन्तान प्राप्ति हेतु हाथ में दिया लेकर जागरण भी करती हैं। जमानी की सुबह देवीं को विधान-पूर्वक बागड़ जाति के सूर्य वंशी राजा के वंशज तथा पुजारी अपनी आंखों में पट्टी बांधकर और ऊपर से काला कम्बल ओढ़कर दुग्ध स्नान कराते हैं और नए परिधान धारण कराने के पश्चात देवी की आरती उतारी जाती। तत्पश्चात् ताम्र पेटिका को संवारकर डोले अर्थात पालकी में प्रतिष्ठापित किया है। इस विशिष्ट पूजा का संचालन विद्वान पण्डित द्वारा किया है। इसके पश्चात देवी विग्रह की डोले में शोभायात्रा निकलती है जिसे जमांन उठना कहते हैं। पहले यह शोभायात्रा एक रथ में निकलती थी किन्तु अब रथ नहीं रहता।
यात्रा में जिस पुजारी की गोद में देवी की मूर्ति रहती है उसे श्रद्धालु कंधे में बिठाए रखते हैं तथा डोले को लाल व पीले रंग के कपड़े की छतरी अर्थात चंवर की छाया में रखा है। इस चंवर को गोलाकार घुमाते हुए देवी के मायके अर्थात मचवाल की ओर चार खाम व सात तोकों के सैकड़ों श्रद्धालु देवी की जय-जयकार करते हुए निकलते हैं। इस समूह में सबसे आगे हाथ में शंख तथा सिर में शकुन पिटारी नामक बक्सा लिए एक अन्य पुजारी चलता है जिसे शुभ एवं मंगलकारी माना है। इस पिटारी में देवी के आभूषण, श्रृंगार की सामग्री, चन्दन, रोली, धूप, वस्त्र आदि होते हैं। पुजारी के साथ पुरोहित रहता। इसके पीछे डोला रहता है, जिसके पीछे देवी को छाया देने वाला रक्षक तथा चंवर लिए भक्तगण चलते हैं। तत्पश्चात देवी का ताम्र छत्र चलता है, जो देवी के भक्त बाड़ी जाति के व्यक्ति के हाथ में रहता है। यह वही छत्र है जिसे ओढ़कर रक्षा बन्धन के दिन पुजारी बग्वाल रोकने हेतु मैदान में जाते हैं। यह छत्र डोले के संरक्षण में निकलता है। छत्र ले जा रहे कुछ श्रद्धालुओं के शरीर में दैवीय आवेश रहता है, जिसके चलते वे कांपते हुए दिखते हैं। कहते हैं कि जमान के साथ बावन बीर, चैसठि योगिनी, भैरव, कलुवा बेताल, ऐड़ी आदि देवगण चलते हैं। छत्र के साथ विविध भांति के वाद्य भी रहते हैं, जो वीररस पूर्ण ध्वनि बजाते हैं। राह में खड़े श्रद्धालु डोले व छत्र में फूल, भेंट, अक्षत आदि चढ़ाते हैं तथा हाथ जोड़कर नमन करते हैं। डोले को देखना बहुत शुभ माना है। मचवाल पहुंचने पर वहां शिव मंदिर की पांच बार परिक्रमा करके डोला वापस लौटता।
जमान के समय बहुधा रिमझिम वर्षा हुआ करती है। कहते हैं कि यह वर्षा नहीं अपितु देवी के आंसू हैं। क्योंकि मायका छोड़ते समय देवी भावुक हो उठती है। लगभग तीन घण्टे में देवी की शोभा यात्रा सम्पन्न हो जाती है (अर्थात लगभग एक बजे दो पहर शोभा यात्रा निकलती है और चार-पांच बजे मंदिर में वापिस आ जाती है)। देवी का डोला क्यों निकलता है इस बारे में कई किवदंतियां प्रचलित हैं। एक मान्यता रही है कि मचवाल में देवी का मायका है। अतः देवी वर्ष में एक बार यहां आती है।

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