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Winter Snow view of Maa Varahi Temple

देवीधुरा एक परिचय

“देवीधुरा“ हिमालयी राज्य उत्तराखंड के चम्पावत जिले में स्थित है। देवीधुरा का प्राचीन नाम “धुर“ हुआ करता था जिसे आज भी स्थानीय भाषा में “देधुर“ कहा जाता है। देवदार के विशाल वृक्षों से आच्छादित मनोहारी प्राकृतिक छटा बिखेरता देवीधुरा नामक यह तीर्थ स्थल समुद्र सतह से 6633 फीट ऊंची चोटी पर स्थित है। देवीधुरा दिल्ली से 371 नैनीताल से 112, टनकपुर से 133 तथा काठगोदाम से 102 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए टनकपुर और काठगोदाम-दो निकटतम रेलवे स्टेशन हैं, जहां से देवीधुरा के लिए सड़क यातायात सुलभ है।

लगभग दो किमी में फैला, वाराही धाम देवीधुरा का परिक्रमा मार्ग, पैदल या वाहन दोनों से तय किया जा सकता है। यहां की जलवायु ठण्डी है और दिसम्बर-जनवरी में एक-दो बार बर्फ भी गिरती है जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र होता है। मां वाराही तीर्थ की चोटी पर भगवान शिव का भव्य मंदिर है। ‘मचवाल’ नाम से प्रसिद्व इस स्थल से हिमालय का जो विहरंग दृश्य दिखाई देता है वह देवीधुरा को और भी अलौकिक बना देता है। मार्च से अक्तूबर तक यहां बहुत सुहाना मौसम रहता है।

देवीधुरा में अनेक विशालकाय गोलाकार शिला खण्डों से बनी एक अद्भुत गुफा है। इस गुफा के भीतर अनेक मंदिर हैं जिनमें देवी देवताओं और उनके वाहनों के चित्र उकेरे गए हैं। इसी गुफा में मां वाराही देवी भी विराजमान हैं जिन्हें पिण्डिका या शिलारूप में पूजा जाता है।

देवीधुरा स्थित श्री वाराही देवी का मंदिर आज विश्व प्रसिद्ध है। स्थानीयजन इसे ‘बाराही देवी’ कहकर पुकारते हैं। सप्तमात्रिकाओं में से एक स्वरूप मां वाराही का है। वैष्णव ग्रंथों में आया है कि समुद्र में डूबती पृथ्वी को उभारने हेतु भगवान विष्णु ने अवतार लिया था जिसे वराह अवतार कहा गया।

वाराह अवतार की आत्मशक्ति ही वाराही कहलाती हैं। पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ने दस अवतार लिए हैं: मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण और बुद्ध। दसवां अवतार कलयुग के अन्तिम चरण में आना अभी शेष है जिसे कल्कि कहते हैं। अपने तीसरे अवतार में भगवान विष्णु वराह (सूकर) की मुखाकृति वाले मातृ देवी के शरीर में प्रकट हुए थे। एक दृष्टान्त के अनुसार ’’हिरण्याक्ष’’ नामक राक्षस ने एक बार पृथ्वी पर अत्याचार करने प्रारंभ कर दिये। यहां तक कि वह धरती को भी पाताल लोक में ले गया। यह सब देखकर भगवान विष्णु ने मानव शरीर में सूकर का सिर अर्थात वराह स्वरूप धारण करके पाताल से या समुद्र में डूबी पृथ्वी को बाहर निकाला। वराह की जिस आत्मशक्ति ने हिरण्याक्ष का वध करके पृथ्वी को बचाया वह वाराही कहलायीं। वाराही एक दयालु, दुःखहत्र्ता और ज्ञान देने वाली देवी है, जो अपने भक्तों से अत्यन्त स्नेह करती है। वाराही सर्व शक्तिमान हैं। उनकी तीन आंखें हैं, जिसमें दाहिनी आंख समृद्धि प्रदान करती है और बांयी आंख विद्या तथा तीसरी आंख ज्ञान की प्रतीक है। प्रकृति के रूप में वाराही सृष्टि की रचना करती है, विष्णु माया रूप में वह इसे संरक्षित रखती है तथा मृत्यु देवी के रूप में वह सृष्टि का संहार करती है। संपूर्ण सृष्टि वाराही के गर्भ में स्थित है। वाराही का संदर्भ शैव, वैष्णव तथा शाक्त तीनों संप्रदायों में आता है।

देवीधुरा में अनेक मंदिर हैं, जो विभिन्न देवताओं को समर्पित हैं, किन्तु यहां की मुख्य आराध्य देवी मां वाराही ही है। वाराही को यहां दो पूजास्थल समर्पित है। अर्थात असीम श्रद्धा वाली प्राचीन गुफा मंदिर की मां गुह्येश्वरी तथा सिंहासन डोला के भीतर सदैव गुप्त रहने वाली मां गुप्तेश्वरी। देवी के मंदिर में नित्य पूजा का क्रम इस प्रकार है:- गणेश पूजा, गुह्येश्वरी, द्वारपाल, भैरवथान, कालिका, मचवाल शिव पूजा और अन्त में गुप्तेश्वरी को भोग लगता है। देवीधुरा में वाराही की पाण्डित्य पूजा में दुर्गा सप्तसती पाठ और देवी भागवत करने की परम्परा है, जो वाराही की तांत्रिक पूजा से भिन्न है।

शैव संप्रदाय में वाराही मां को माता सती के रूप में पूजते हैं जिसका वर्णन शिव पुराण में हुआ है। शाक्त संप्रदाय में देवी महात्म्य तथा दुर्गा सप्तसती में वाराही का वर्णन हुआ है। वाराही देवी के अनेक स्वरूप हैं। वाममार्गी पूजा में वाराही की तांत्रिक विधि से पूजा की जाती है। बौद्ध धर्म में मां वाराही को वज्र वराही के रूप में पूजा जाता है। मूर्तियों में उन्हें प्रायः चतुर्भुजी या अष्ठभुजी चित्रित किया गया है। उनके दो हाथ अभय मुद्रा (भय दूर करने वाली) और वरद (सुख-संपत्ति देने वाली) मुद्रा में हैं। अन्य हाथों में वे शंख, चक्र, गदा, कमल, फल, वज्र आदि धारण किये हुए हैं। वैष्णव संप्रदाय में उन्हें प्रायः सूकर मुखाकृति में दिखाया जाता है। वाराह आकृति में उन्हें बाराही तथा मानव मुखाकृति में उन्हें श्री दुर्गा कहा जाता है। वाराही एक कृपाशील देवी हैं। देवीधुरा में मां वाराही को जगदम्बा माता के रूप में पूजा जाता है तथा उन्हें पंचतत्वों का प्रतीक माना जाता है।

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