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जय राम रमारमनं समनं

जय राम रमारमनं शमनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।

अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥

हे राम! हे रमारमण (रमाकांत)! हे जन्म-मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणांगत आपसे यही मांगता हूं कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए॥1॥

दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।

रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे॥2॥

हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महा कष्टों को दूर करने वाले श्री रामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए॥2॥

महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग वरं।

मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥3॥

आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं, आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकश धारण किए हुए हैं। महा मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं॥3॥

मनजात किरात निपात किये। मृग लोग कुभोग सरेण हिये।

हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। विषया बन पावंर भूलि परे॥4॥

कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ! हे हरे! (पाप-ताप का हरण करने वाले) उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए॥4॥

बहु रोग वियोगन्हि लोग हये। भवदंघ्रि निरादर के फल ए।

भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥5॥

लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं॥5॥

अति दीन मलीन दुःखी नितही। जिन्ह के पद पंकज प्रीत नही।

अवलंब भवंत कथा जिन्ह के। प्रिय संत अनंत सदा तिन्हके॥6॥

दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत सदा प्रिय लगने लगते हैं॥6॥

नहिं राग न लोभ न मान मदा। तिन्ह के सम वैभव वा बिपदा।

एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥7॥

जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यंत दीन, मलिन (उदास) और जिनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद। उसके लिए संपत्ति, सुख और विपत्ति (दुःख) समान हैं इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥।7॥

करि प्रेम निरंतर नेम लिएं। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएं।

सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंत मही॥8॥

वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं॥8॥

मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुवीर महा रणधीर अजे।

तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥9॥

हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महा रणधीर एवं अजेय श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूं (आपकी शरण ग्रहण करता हूं)। हे हरि! आपका नाम जपता हूं और आपको नमस्कार करता हूं। आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान औषधि और अभिमान के शत्रु हैं॥9॥

गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।

रघुनंद निकंदय द्वंद्व घनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥10॥

आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान हैं। आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूं। हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख-दुःख, राग-द्वेषादि रूपी) द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए। हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन्! दीन जन की ओर भी दृष्टि डालिए॥10॥

॥दोहा॥

बार-बार वर मागउं हरषि देहु श्रीरंग

पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग॥11॥

मैं आपसे बार-बार यही वरदान मांगता हूं कि मुझे आपके चरणकमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो। हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए॥11॥

दृगोस्वामी तुलसीदास

 

https://youtu.be/19lxQtllDT4 श्री रामभद्राचार्य जी ने गाया है)

 

॥वैष्णव जन तो तेने॥

वैष्णव जन तो तेने कहिये जे, पीड़ पराई जाणे रे।

पर दुःखे उपकार करे तो ये, मन अभिमान न आणे रे।

सकल लोकमां सहुने वन्दे, निंदा न करे केनी रे।

वाच काछ मन निश्छल राखे, धन धन जननी तेनी रे॥वैष्णव॥

सम दृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे।

जिव्हा थकी असत्य न बोले, पर धन नव झाले हाथ रे।

मोह माया व्यापे नहीं जेने, दृढ़ वैराग्य जेना मनमां रे।

राम नाम शुं ताली रे लागी, सकल तीरथ तेना तनमां रे॥वैष्णव॥

वणलोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे।

भणे नरसैय्यो तेनुं दरसन करता, कुल एकोतेर तार्या रे॥वैष्णव॥

(संत नरसिंह मेहता)

 

 

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